Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 531
________________ ४१८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४,२, १४,४५. काउलेस्सियाए लग्गो, पुणरवि मारणंतियसमुग्धादेण समुहदो, तिण्णि विग्गहगदिकंदयाणि काऊण से काले अधो सत्तमाए पुढवीए णेरइएसु उववजिहदि त्ति ॥४५॥ एदेण सव्वेण वि सुत्तेण णाणोवरणीयस्स उक्कस्सखेत्तपञ्चासो परूविदो। एदस्स सुत्तस्स अत्थो वि सुगमो, खेत्तविहाणे परूविदत्तादो । खेत्तपञ्चासेण गुणिदाओ॥ ४६॥ पुवुत्तेण खत्तपञ्चासेण गुणिदाओ समयपबद्धट्टदापयडीओ एत्थतणपयडिपमाणं होति । एवं दियाओ पयडीओ॥४७॥ पयडिअदाए जाओ पयडीओ णाणावरणीयस्स परूविदाओ ताओ अप्पप्पणो समयपबद्धट्ठदाए गुणेदव्वाओ। एवं गुणिदे समयपबद्धट्टदापयडीओ होति । पुणो तासु खेत्तपञ्चासेण जगपदरस्स असंखेजदिभागमेत्तेण गुणिदासु एत्थतणपयडीओ होति । एत्थ तेरासियकमेण पयडिपमाणमाणेदव्वं । एवं दंसणावरणीय-मोहणीय-अंतराइयाणं ॥ ४८ ॥ तटपर स्थित है, वेदनासमुद्घातको प्राप्त हुआ है, कापोतलेश्यासे संलग्न है, इसके बाद मारणंतिक समुद्घातको प्राप्त हुआ है, विग्रहगतिके तीन काण्डकोंको करके अनन्तर समयमें नीचे सातवीं पृथिवीके नारकियों में उत्पन्न होगा, उसके ज्ञानावरण कर्मकी जो एक एक प्रकृति होती है ॥ ४५ ॥ इस सब ही सूत्र के द्वारा ज्ञानावरणीय कर्मके उत्कृष्ट क्षेत्र प्रत्यासकी प्ररूपणा की गई है। इस सूत्रका अर्थ भी सुगम है, क्योंकि, क्षेत्रविधानमें उसकी प्ररूपणा की जा चुकी है। उन्हें क्षेत्रप्रत्यास से गुणित करनेपर ज्ञानावरणकी क्षेत्रप्रत्यास प्रकृतियोंका प्रमाण होता है ॥ ४६ ॥ पूर्वोक्त क्षेत्र प्रत्याससे समय प्रबद्धार्थता प्रकृतियोंको गुणित करनेपर यहाँकी प्रकृतियोंका प्रमाण होता है। उसकी इतनी प्रकृतियां हैं ॥ ४७ ॥ प्रकृत्यर्थतामें ज्ञानावरणकी जिन प्रकृतियोंकी प्ररूपणा की गई है उनको अपनी अपनी समयप्रबद्धार्थतासे गुणित करना चाहिये । इस प्रकार गुणित करनेपर समयप्रबद्धार्थता प्रकृतियाँ होती हैं। फिर उनको जगप्रतरके असंख्यातवें भाग मात्र क्षेत्रप्रत्याससे गुणित करनेपर यहाँकी प्रकृतियाँ होती हैं। यहाँ त्रैराशिक क्रमसे प्रकृतियांका इसी प्रकार दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय कर्मोंके सम्बन्धमें प्ररूपणा करनी चाहिये ॥४८॥ वाहिये। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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