Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 529
________________ ४६६] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १४, ३९. तम्हा सम्मत्त-सम्मामिच्छत्ताणं व एदाणि तिणि वि संतकम्माणि । तदो जहा सम्मत्तसम्मामिच्छत्ताणं समयपबद्धट्टदा संकमेण परूविदा तहा एदासि पि संकमेणेव परवेदव्वा, संतकम्मत्तं पडि भेदाभावादो। जदि वि संकमेण समयपबद्धवदा वुच्चदे तो वि उक्कस्सहिदिमेत्ता समयपबद्धट्टदा णोवलब्भदे, सम्मत्त-सम्मामिच्छत्तेसु कम्मट्टिदिपढमसमयप्पहुडि अंतरमेत्तकालम्हि बद्धसमयपबद्धाणं संकमाभावादो आहार-तित्थयरेसु उदयावलियमेत्तसमयपबद्धाणं संकमाभावादो त्ति ? ण एस दोसो, णाणाकालेसु णोणाजीवे अस्सिदण परूविजमाणे सव्वेसिं समयपबद्धाणं संमुवलंभादो। ण च कम्मट्टिदीए आदीए चेव एत्थ होदि त्ति णियमो अत्थि, अणादिसंसारे बुद्धिबलसिद्धआदिदंसणादो। एत्थ जं गंथबहुत्तभएण ण वुत्तं तं चिंतिय वत्तव्वं । एवांदयाओ पयडीओ ॥ ३४ ॥ जत्तिया समयपबद्धा पुच्वं परूविदा एककिस्से पयडीए तत्तियमेत्ताओ पयडीओ होंति त्ति घेत्तव्वं । गोदस्स कम्मस्स केवडियाओ पयडीओ॥४०॥ सुगम। है। इस कारण सम्यक्त्व व सम्यमिथ्यात्वके समान ये तीनों ही सत्त्वप्रकृतियाँ हैं। अतएव जिस प्रकार सम्यक्त्व व सम्यमिथ्यात्व प्रकृतियोंकी समयप्रबद्धार्थताकी संक्रमण द्वारा प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार इनकी भी समयप्रबद्धार्थताकी प्ररूपणा संक्रमण द्वारा करनी चाहिये, क्योंकि, सत्कर्मताके प्रति उनमें कोई विशेषता नहीं है। ____ शङ्का-यद्यपि संक्रमणसे इनकी समयप्रबद्धार्थता बतलाई जा रही है तो भी इनकी उत्कृष्ट स्थिति प्रमाण समयप्रबद्धार्थता नहीं पायी जाती है, क्योंकि, सम्यक्त्व और सम्यमिथ्यात्व प्रकृतियोंमें कर्मस्थितिके प्रथम समयसे लेकर अन्तर प्रमाण कालमें बाँधे गये समयप्रबद्धोंके संक्रमणका अभाव है, तथा आहारद्विक और तीर्थंकर प्रकृतियोंमें उदयावली प्रमाण समयप्रवद्धोंके संक्रमणका अभाव है ? ___समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि नाना कालोंमें नाना जीवोंका आश्रय करके प्ररूपणा करनेपर सब समयप्रबद्धोंका संक्रमण पाया जाता है। दूसरे, यहाँ कर्मस्थितिके आदिमें ही होता है, ऐसा नियम भी नहीं है, क्योंकि, अनादि संसारमें बुद्धिबलसे सिद्ध आदि देखी जाती है । यहाँ ग्रन्थकी अधिकताके भयसे जो नहीं कहा गया है उसको विचार कर कहना चाहिये। उसकी इतनी प्रकृतियाँ हैं।॥ ३४॥ एक एक प्रकृतिके जितने समयप्रबद्ध पहिले कहे गये हैं उतनी मात्र प्रकृतियाँ होती हैं, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। गोत्र कर्मकी कितनी प्रकृतियाँ हैं ? ॥४०॥ यह सूत्र सुगम है। १ न-श्रा-काप्रतिषु 'भएण वुत्त' इति पाठः। . . . .. Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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