Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 527
________________ ४९४ ] छक्खंडागमे वैयणाखंड [४, २, १४, ३८. तोमुहत्तमेत्ता चेव समयपबद्धट्ठदा लब्भदि । तित्थयरस्स पुण सादिरेयतेत्तीससागगेवममेत्ता समयपबद्धट्ठदा लभंति । तं जहाएगो देवो वा णेरइयो वा सम्मादिट्ठी पुनकोडाउअमणुस्सेसु उववण्णो, गन्मादिअट्ठवस्साणमंतोमुहुत्तब्भहियाणमुवरि तित्थयरणामकम्मबंधमागंतूण तदो पहुडि उवरि णिरंतरं बज्झदि जाव अवसेसपुव्वकोडिसमहियतेत्तीससागरोवमाणि ति, तित्थयरं बंधमाणसंजदस्स बद्धतेत्तीससागरोवममेत्तदेवाउअस्स देवेसुप्पण्णस्स तेत्तीससागरोक्ममेतकालं णिरंतरं बंधुवलंभादो । पुणो तत्तो चुदो समाणो पुणो वि तित्थयरणामकम्मं बंधदि जाव पुव्वकोडाउअमणुस्सेसु उप्पन्जिय वासपुधत्तावसेसे अपुवकरणो होदण चरिमसत्तमभागस्स पढमसमयअपुव्यकरणो त्ति । उवरि बंधी णस्थि, चरिमसत्तमभागस्स पढमसमए अणुप्पादाणुच्छेदेण बंधो वोच्छिादि त्ति ससुत्ताइरियवयणुवलंभादो। वासपुधत्तं किमिदि उव्वराविदं ? ण एस दोसो, तित्थविहारस्स जहण्णेण वासपुधत्तमेत्तकालुवलंभादो । एवमादिमंतिमदोहि' वासपुधत्तेहि ऊणदोपुव्वकोडीहि सादिरेयतेत्तीससागरोवममेत्ता तित्थयरस्स समयपबद्धवदा होदि त्ति के वि आइरिया भणति । तण्ण घडदे। कुदो ? आहारदुगस्स संखेजवासमेत्ता तित्थयरस्स सादिरेयतेत्तीससागरोवममेत्ता समयपबद्धदुदा होति त्ति सुत्ताभावादो। ण च सुत्तपडिकूलं वक्खाणं होदि, वक्खाणाभासत्तादो। रूपसे ग्रहण करनेपर संख्यात अन्तर्मुहूर्त प्रमाण ही समयप्रबद्धार्थता पायी जाती है। परन्तु तीर्थंकर प्रकृतिकी समयप्रबद्धार्थता साधिक तेतीस सागरोपम प्रमाण पायी जाती है। यथा-एक देव अथवा नारकी सम्यग्दृष्टि पूर्वकोटि प्रमाण आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न हुआ। उसके गर्भसे लेकर अन्तर्मुहूर्त अधिक आठ वर्षों के पश्चात् तीर्थंकर नामकर्म बन्धको प्राप्त हुआ। उससे आगे वह शेष पूर्वकोटिसे अधिक तेतीस सागरापम प्रमाण काल तक निरन्तर बधता है, क्योंकि, जो संय सागरोपम प्रमाण देवायुको बाँधकर देवोंमें उत्पन्न हो तीर्थंकर प्रकृतिको बाँधता है उसके तेतीस सागरोपम प्रमाण काल तक उसका निरन्तर बन्ध पाया जाता है । फिर वहाँ से च्युत होकर फिरसे भी वह पूर्वकोटि प्रमाण आयुवाले मनुष्योंमें उत्पन्न होकर वर्ष पृथक्त्वके शेष रहनेपर अपूर्वकरण गुणस्थानवर्ती होकर अन्तिम सप्तम भागके प्रथम समयवर्ती अपूर्वकरण तक तीर्थंकर नामकर्मको बाँधता है। इसके आगे उसका बन्ध नहीं होता है, क्योंकि, "अन्तिम सप्तम भागके प्रथम समयमें अनुत्पादानुच्छेदसे उसका बन्ध व्युच्छिन्न हो जाता है" ऐसा ससूत्राचार्यका वचन पाया जाता है। शङ्का-वर्षपृथक्त्वको अवशेष क्यों रखाया गया है ? समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, तीर्थविहारका काल जघन्य स्वरूपसे वर्षपृथक्त्व मात्र पाया जाता है। इस प्रकार आदि और अन्तके दो वर्षपृथक्त्वोंसे रहित तथा दो पूर्वकोटि अधिक तीर्थङ्कर प्रकृतिकी तेतीस सागरोपम मात्र समयप्रबद्धार्थता होती है, ऐसा कितने ही आचार्य कहते हैं, परन्तु वह घटित नहीं होता, क्योंकि, आहारकद्विककी संख्यात वर्ष मात्र और तीर्थंकर प्रकृतिकी साधिक तेतीस सागरोपम प्रमाण समयप्रवद्धार्थता है, ऐसा कोई सूत्र नहीं है । और सूत्रके प्रतिकूल व्याख्यान होता नहीं है, क्योंकि, १ तापतौ 'एवमादिमंतरियदोहि' इति पाठः । २ अ-श्रा-काप्रतिषु 'मेत्तो' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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