Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 534
________________ वेयणभागाभागविहाणाणियोगद्दारं वेयणभागाभागविहाणे ति ॥ १॥ एदमहियारसंभालणसुत्तं सुगम । तत्थ इमाणि तिण्णि अणियोगद्दाराणि-पयडिअट्ठदा समयपबद्धट्टदा खेत्तपञ्चासे त्ति ॥ २ ॥ एवमेदाणि एत्थ तिण्ण चेव अणियोगद्दाराणि होति, अण्णेसिमसंभवादो । पयडिअदाए णाणावरणीय-दसणावरणीयस्स कम्मस्स पयडीओ सव्वपयडीणं केवडियो भागो ॥३॥ किं संखेजदिमागो किमसंखेजदिभागो किमणंतिमभागो त्ति भणिदं होदि । दुभागो देसूणो ॥४॥ तं जहा-ओहिणाणावरणीयपयडीओ ओहिदंसणावरणीय पयडीओ च पुध पुध असंखेजलोगमेता होदण अण्णोण्णं पेक्खिद्ण समाणाओ, सव्योहिणाणवियप्पाणं ओहिदंसणपुरंगमत्तुवलंभादो। मदिणाणावरणीयपयडीओ चक्खु-अचक्खुदंसणावरणीयपय अब वेदनाभागाभागविधान अनुयोगद्वार का अधिकार है ॥ १॥ यह अधिकारका स्मरण करानेवाला सूत्र सुगम है। उसमें ये तीन अनुयोगद्वार हैं-प्रकृत्यर्थता, समयप्रबद्धार्थता और क्षेत्र. प्रत्यास ॥ २॥ ___ इस प्रकार यहाँ ये तीन ही अनुयोग द्वार हैं, क्योंकि, इनसे अन्य अनुयोगद्वार यहाँ सम्भव नहीं है। प्रकृत्यर्थतासे ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्मकी प्रकृतियाँ सब प्रकृतियोंके कितने भाग प्रमाण हैं ॥३॥ वे क्या संख्यातवें भाग प्रमाण हैं, क्या असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं या क्या अनन्तवें भाग प्रमाण हैं, यह इस सूत्र का अभिप्राय है। वे सब प्रकृतियोंके कुछ कम द्वितीय भाग प्रमाण हैं ॥ ४ ॥ यथा-अवधिज्ञानावरणकी प्रकृतियाँ और अवधिदर्शनावरणकी प्रकृतियाँ पृथक् पृथक असंख्यात लोक प्रमाण होकर परस्परकी अपेक्षा समान हैं, क्योंकि, अवधिज्ञानके सब भेद अवधिदर्शनपूर्वक पाये जाते हैं। मतिज्ञानावरणीयकी प्रकृतियाँ और चक्षु व अचक्षु दर्शनावरणीयकी Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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