Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 538
________________ ४, २, १५, १२] वेयणभागाभागविहाणाणियोगद्दारं [५०५ एवदियो होदि । ऐवंविहाओ गाणावरणीय-दसणावरणीयकम्मपयडीओ सम्बपरडी] केवडिओ भागो त्ति संबंधो कायव्यो । सेसं सुगमं । दुभागो देसूणो ॥६॥ ___एत्थ सादिरेयदोरूवमेत्तभागहारो पुव्वं व साहेयव्वो, गुणगारकयभेदेण सह सादिरेयदोरूवभागहारस्स विरोहामावादो। एवं वेयणीय-मोहणीय-आउअ-णामा-गोद-अंतराइयाणं च णेयव्वं ॥१०॥ ____ जहा णाणावरणीय-दसणावरणीयाणं समयपबद्धट्ठदं सग-सगउक्कस्सद्विदीहि गुणेदूण पयडीणं पमाणपरूवणा कदा तहा एदेसि कम्माणं सग-सगुक्कस्सबंधहिदीहि बंधगद्धाहि य समयपबद्धट्ठदं गुणिय पयडिपमाणपरूवणा कायव्वा मंदमेहाविसिम्सयोहणहूं।) णवरि विसेसो सव्वपयडीणं केवडिओ भागो॥११॥ इदि पुच्छिदे। असंखेजदिभागो ॥१२॥ त्ति भाणिदव्वं' । एदाहि समयपबद्धट्टदापयडीहि सव्वपयडिसमूहे भागे हिदे वरणीय कर्मकी एक एक प्रकृति होती है। इस प्रकारकी ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीय कर्मकी प्रकृतियाँ सब प्रकृतियोंके कितने भाग प्रमाण हैं, ऐसा सम्बन्ध करना चाहिये। शेष कथन सुगम है। वे उनके साधिक द्वितीय भाग प्रमाण हैं ॥९॥ यहाँ साधिक दो अंक मात्र भागहारको पहिलेके समान सिद्ध करना चाहिये, क्योंकि, गुणकारकृत् भेदके साथ साधिक दो अंक मात्र भागहारका कोई विरोध नहीं है। इसी प्रकार वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अन्तरायके सम्बन्धमें जानना चाहिये ॥१०॥ जिस प्रकार ज्ञानावरणीय और दर्शनावरणीयकी समयप्रबद्धार्थताको अपनी अपनी सत्कृष्ट स्थितियोंसे गुणित कर प्रकृतियोंके प्रमाणकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकारसे इन कर्मोंकी अपनी अपनी उत्कृष्ट स्थितियों और बन्धककालोंसे समयप्रबद्धार्थताको गुणित करके प्रकृतियोंके प्रमाणकी प्ररूपणा मन्दबुद्धि शिष्योंके प्रबोधनार्थ करनी चाहिये। विशेष इतना है कि वे सब प्रकृतियोंके कितने भाग प्रमाण हैं ॥ ११ ॥ ऐसा पूछने पर। वे उनके असंख्यातवें भाग प्रमाण हैं ॥ १२ ॥ इस प्रकार कहलाना चाहिये, क्योंकि, इन समयप्रबद्धार्थता प्रकृतियोंका सब समूहमें भाग १ प्रतिषु 'त्ति भाणिदव्वं' सूत्रे सम्मिलितम् । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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