Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

Previous | Next

Page 520
________________ ४, २, १४, २६.] वेयणपरिमाणविहाणाणियोगहार [४८७ . एवदियाओ पयडीओ ॥२७॥ जत्तियाओ कालणिबंधणपयडीओ णाणावरणादीणमेकेका पयडी तत्तियमेत्ता होदि त्ति भणिदं होदि । णवरि मदिणाणावरणीय-सुदणाणावरणीय-ओहिणाणावरणीयचक्खु-अचक्खु-ओहिदंसणावरणीयाणं च तीसंसागरोवमकोडाकोडिगुणिदाए एगसमय. पबद्धट्टदाए असंखेजलोगेहि गुणिदाए एदासिं' सव्वपयडिपमाणं होदि । अधवा, कम्मद्विदिपढमसमए बद्धकम्मक्खंधो एगसमयपबद्धट्ठदा, विदियसमयपबद्धो विदियसमयपबद्धदृदा ! एवं णेयव्वं जाव कम्मट्टिदिचरिमसमओ त्ति । पुणो एगसमयपबद्धट्ठदं ठविय तीसंसागरोवमकोडाकोडीहि गुणिदे एककस्स कम्मस्स एव दियाओ पयडीओ होति । एसा परूवणा एत्थ पहाणा, ण पुबिल्ला एग-दोआदिसययहिदिदव्वमस्सिदूण परूविदा । वेयणीयस्स कम्मस्स केवडियाओ पयडीओ ॥ २८ ॥ सुगम । वेदणीयस्स कम्मस्स एकेका पयडी तीसं-पण्णारससागरोवमकोडाकोडीओ समयपबद्धट्टदाए गुणिदाए ॥ २६ ॥ . असादावेदणीयस्स कम्महिदिपढमसमए जो बद्धो कम्मक्खंधो सा एगा समयउनमें से प्रत्येककी इतनी प्रकृतियाँ होती हैं ॥ २७ ॥ जितनी कालनिवन्धन प्रकृतियाँ हैं, ज्ञानावरणादिकोंमेंसे प्रत्येककी एक एक प्रकृति उतनी मात्र होती है, यह उक्त सूत्रका अभिप्राय है। विशेष इतना है कि मतिज्ञानावरणीय, श्रुतज्ञानावरणीय, अवधिज्ञानावरणीय, चक्षुदर्शनावरणीय, अचक्षुदर्शनावरणीय और अवधिदर्शनावरणीयकी तीस कोड़ाकोडि सागरोपमोंसे गुणित एक समयप्रबद्धार्थताको असंख्यात लोकोंसे गुणित करनेपर इनकी समस्त प्रकृतियोंका प्रमाण होता है। __ अथवा, कर्मस्थितिके प्रथम समयमें बांधे गये कर्मस्कन्धका नाम एक समयप्रबद्धार्थता है; द्वितीय समयमें बांधे गये कर्मस्कन्धका नाम द्वितीय समयप्रबद्धार्थता है, इस प्रकार कर्मस्थितिके अन्तिम समय तक ले जाना चाहिये। फिर एक समयप्रबद्धार्थताको स्थापितकर तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपमोंसे गुणित करनेपर एक एक कर्मकी इतनी प्रकृतियाँ होती हैं। यह प्ररूपणा यहाँ प्रधान है, न कि एक दो अादि समयमात्र स्थितिके द्रव्यका आश्रय करके की गई पूर्वोक्त प्ररूपणा । वेदनीय कर्मकी कितनी प्रकृतियाँ हैं ॥ २८ ॥ यह सूत्र सुगम है। तीस और पन्द्रह कोड़ाकोड़ी सागरोपमोंको समयप्रबद्धार्थतासे गुणित करनेपर जो प्राप्त हो उतनी मात्र वेदनीयकर्मकी एक एक प्रकृति है ॥ २६ ॥ असाता वेदनीयकी कर्मस्थिति के प्रथम समयमें जो कर्मस्कन्ध बाँधा गया है वह एक समय१ श्र-काप्रत्योः 'एदेसिं' इति पाठः, श्राप्रतौ त्रुटितोऽत्र पाठः । २ तापतौ 'सो' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

Loading...

Page Navigation
1 ... 518 519 520 521 522 523 524 525 526 527 528 529 530 531 532 533 534 535 536 537 538 539 540 541 542 543 544 545 546 547 548 549 550 551 552 553 554 555 556 557 558 559 560 561 562 563 564 565 566 567 568 569 570 571 572