Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
४, २, १४, ३०. ]
वेयणपरिमाणविहाणाणियोगद्दारं
[ ४८९
संकमेण असादत्ताए परिणदाणं असादसमयपबद्धत्तविरोहादो । अकम्मसरूवेण द्विदा पोग्गला असादकम्म सरूवेण परिणदा जदि होंति ते असादसमयपबद्धा णाम । तम्हा संकमेणागदाणं ग समयपबद्धववएसो त्ति सिद्धं । एवं घेप्पमाणे सादवेदीयस्स वि आवलिऊणती संसागरोव मकोडाको डिमे त्तसमयपबद्धट्ठदापसंगादो । कुदो ? बंधावलियादीदसादट्ठिीए सादसरूवेण संकंताए' सादसरूवेण चैव बंधावलिऊणकम्मडिदिमेत्तकालमवङ्काणदंसणादो | ण च सादस्स एत्तियमेत्ता समयपबद्धदा अत्थि, सुत्ते पण्णारससागरोवमकोडाको डिमेत्तसमयपत्रद्धट्टदुवदेसादो' । ण च असादस्स सादत्ताए संकेतस्स पण्णारससागरोवमकोडा कोडिमेत्ता चेव द्विदी, खंडयघादेण विणा कम्मद्विदोए घादाभावाद । एवं सादावेदणीयस्स वि वत्तव्वं, विसेसाभावादो । एवदियाओ पयडीओ ॥ ३० ॥
जतियाओ सादासाद वेदणीयाणं कालगदसत्तीयो तत्तियाओ चैव तासिं पयडीओ त्ति घेत्तव्वं ।
समाधान - क्योंकि, साता वेदनीयके स्वरूपसे बांधे गये परन्तु संक्रमण वश असाता वेदनीयके स्वरूपसे परिणत हुए कर्मस्कन्धोंके असातावेदनीय के समयप्रबद्ध होनेका विरोध है । कारण कि कर्मस्वरूपसे स्थित पुद्गल यदि असातावेदनीय कर्मके स्वरूपसे परिणत होते हैं तो वे असाता वेदनीयके समयप्रबद्ध कहे जाते हैं। इसलिये संक्रमण वश आये हुए कर्मपुद्गल स्कन्धों की समयबद्ध संज्ञा नहीं हो सकती, यह सिद्ध है ।
वैसा ग्रहण करनेपर साता वेदनीयके भी एक आवलीसे रहित तीस कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण समयप्रबद्धार्थताका प्रसंग आता है, क्योंकि, बंधावलीसे रहित असातावेदनीयकी स्थितिका सातावेदनीयके स्वरूपसे परिणत होकर साता वेदनीयके स्वरूपसे ही बन्धावलीसे हीन कर्मस्थिति मात्र काल तक अवस्थान देखा जाता है । परन्तु साता वेदनीयके इतने समयप्रबद्ध नहीं हैं, क्योंकि सूत्रमें उसके पन्द्रह कोड़ा कोड़ी सागरोपम मात्र समयप्रबद्धों का उपदेश है । यदि कहा जाय कि असाता वेदनीय सातावेदनीयके स्वरूपसे संक्रमणको प्राप्त होता है अतः उस कर्मकी पन्द्रह कोड़ाकोड़ी सागरोपम प्रमाण स्थिति हो सकती है, तो यह कहना भी ठीक नहीं है; क्योंकि, काण्डकघात के बिना कर्मस्थितिका घात सम्भव नहीं है ।
इसी प्रकार साता वेदनीयके सम्बन्ध में भी प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है ।
उसकी इतनी प्रकृतियाँ हैं ॥ ३० ॥
साता व असातावेदनीयकी जितनी कालगत शक्तियाँ हैं उतनी ही उनकी प्रकृतियाँ हैं ऐसा ग्रहण करना चाहिये ।
१ श्रा-का-ताप्रतिषु 'सादसरूवेण संकंताए' इत्येतावानयं पाठो नोपलभ्यते । २ श्रापतौ 'त्रुटितोऽत्र पाठः, ताप्रतौ पद्धतदुवदेसादो' इति पाठः ।
छ. १२-६२
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org