Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४८०] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, १४, ५ वड्डी चेव होदि ति के वि आइरिया भणंति । के वि पुण अक्खरणाणप्पहुडि उवरि सव्वत्थ खओवसमस्स छबिहा वड्डी होदि ति भणंति । एवं दोहि उवदेसेहि पद-पदसमास-संघाद-संघादसमास-पडिवत्ति-पडिवत्तिसमास-अणियोग-अणियोगसमास-पाहुडपाहुड-पाहुडपाहुडसमास-पाहुड-पाहुडसमास-वत्थु-वत्थुसमास-पुन्य-पुथ्वसमासणाणाणं' परूवणा कायव्वा । एवमसंखजलोगमेत्ताणि सुदणाणाणि । मदिणाणाणि वि एत्तियाणि चेव, सुदणाणस्स मदिणाणपुरंगमत्तादो कजभेदेण कारणभेदुवलंभादो वा। ओहिमणपञ्जवणाणाणं जहा मंगलदंडए भेदपरूवणा कदा तहा कायया । केवलणाणमेयविधं, कम्मक्खएण उप्पजमाणत्तादो । जत्तिया' णाणवियप्पा तत्तियाओ चेव कम्मस्स आवरणसत्तीयो । कत्तो एदं णव्वदे ? अण्णहा असंखेजलोगमेतणाणाणुववत्तीदो। एवं दसणस्स वि परूवणा कायव्वा, सव्वणाणाणं दंसणपुरंगमत्तादो। जत्तियाणि सणाणि सत्तियाणि चेव दंसणावरणीयस्स आवरणसत्तीयो। एवं णाणावरणीय-दसणावरणीयाणमसंखेजलोगमेत्तपयडीयो ति सिद्धं ।
एवदियाओ पयडीओ ॥ ५ ॥ एत्थ पयडीयो ति वुत्ते कम्माणं गहणं, सहावभेदेण सहावीणं पि मेदुवलंभादो । जत्तिया कम्माणं सहावा तत्तियाणि चेव कम्माणि चि भणिदं होदि । कितने ही आचार्य अक्षरज्ञानसे लेकर आगे सब जगह क्षयोपशम ज्ञानके छह प्रकारकी वृद्धि होती है, ऐसा कहते हैं। इस प्रकार दो उपदेशोंसे पद, पदसमास, संघात, संघातसमास, प्रतिपत्ति, प्रतिपत्तिसमास, अनुयोग, अनुयोगसमास, प्राभृतप्राभृत, प्राभृतप्राभृतसमास, प्राभृत, प्राभृतसमास, वस्तु, वस्तुसमास. पूर्व और पूर्वसमास ज्ञानोंकी प्ररूपणा करनी चाहिये। इस प्रकार श्रतज्ञान असंख्यात लोक प्रमाण है। मतिज्ञान भी इतने ही हैं, क्योंकि, श्रतज्ञान मतिज्ञानपूवक ही होता है,अथवा कारणके भेदसे चूँकि कार्यका भेद पाया जाता है अतएव वे भी असंख्यात लोक प्रमाण ही हैं। अवधि और मनःपर्ययज्ञानोंके भेदोंकी प्ररूपणा जैसे मंगलदण्डकमें की गई है वैसे करनी चाहिये। केवलज्ञान एक प्रकारका है, क्योंकि, वह कर्मक्षयसे उत्पन्न होनेवाला है । जितने ज्ञानके भेद हैं उतनी ही कर्मकी आवरण शक्तियाँ हैं।
शंका-यह किस प्रमाण से जाना जाता है ? समाधान-कारण कि उसके बिना असंख्यात लोक प्रमाण ज्ञान बन नहीं सकते।।
इसी प्रकार दर्शनकी भी प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि, सब ज्ञान दर्शनपूर्वक ही होते हैं। जितने दर्शन हैं उतनी ही दर्शनावरणकी आवरण शक्तियाँ हैं। इस प्रकारसे ज्ञानावरणीय और दशनावरणीयकी प्रकृतियाँ असंख्यात लोक प्रमाण हैं, यह सिद्ध है।
इतनी मात्र प्रकृतियाँ हैं ॥ ५ ॥
यहाँ सूत्रमें 'प्रकृतियाँ ऐसा कहनेपर कर्मोंका ग्रहण होता है, क्योंकि, स्वभावके भेदसे स्वभाववालोंका भी भेद पाया जाता है। अभिप्राय यह है कि जितने कर्मों के स्वभाव हैं उतने ही कर्म हैं।
१ गो, जी. ३१६- ३१.. । २ अ-श्रा-का प्रतिषु ‘जेत्तिया' इति पाठः।
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