Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४८४] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, १४, १५. पाओग्गाणुपुग्विणामाए पणदालीसजोयणसदसहस्सबाहल्लाणि तिरियपदराणि उद्धंकवाडछेदणयणिफण्णाणि सेडियसंखेजभागमेत्तेहि ओगाहणवियप्पेहि गुणिदे जा संखा उप्पअदि तत्तियमेत्तीओ पयडीओ। देवगइपाओग्गाणुपुग्विणामाए णवजोयणसयवाहल्ले तिरियपदरे सेडीए असंखेजमागमेत्तेहि ओगाहणवियप्पेहि गुणिदे जा संखा उप्पजदि तत्तियमेत्तीओ पयडीओ। गदि जादि-सरीरादीणं पयडीणं पि जाणिय भेदपरूवणा कायव्वा ।
एवदियाओ पयडीओ ॥ १७॥
जत्तियाओ णामकम्मरस सत्तीओ पुवं परूविदाओ तत्तियमेत्ताओ चेव तस्स पयडीओ होंति त्ति घेत्तव्यं ।।
गोदस्स कम्मस्स केवडियाओ पयडोओ॥ १८॥ सुगमं । गोदस्स कम्मस्स दुवे पयडीओ॥ १६ ॥
'उच्चागोदणिव्वत्तणप्पिया णीचागोदणिवत्तणप्पिया चेदि गोदस्स दुवे पय. डोओ। अवांतरभेदेण जदि वि बहुआवो अत्थि तो वि ताओ ण उत्ताओ गंथबहुत्त. भएण अत्थावत्तीए तदवगमादो वा । शक्तियाँ होती हैं। ऊर्ध्वकपाटके अर्धच्छेदोंसे उत्पन्न पैंतालीस लाख योजनबाहल्य रूप तिर्यातरोंको श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र अवगाहनाभेदोंसे गुणित करनेपर जो संख्या उत्पन्न होती है उतनी मात्र मनुष्यगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मकी प्रकृतियाँ होती हैं । नौ सौ योजन बाहल्यरूप तिर्यक्प्रतरको श्रेणिके असंख्यातवें भाग मात्र अवगाहनाभेदोंसे गुणित करनेपर जो संख्या उत्पन्न होती है उतनी मात्र देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी नामकर्मकी प्रकृतियाँ होती हैं । गति, जाति व शरीर आदिक प्रकृतियोंके भी भेदोंकी प्ररूपणा जानकर करनी चाहिये।
उसकी इतनी प्रकृतियाँ हैं ॥ १७ ॥
नामकर्मकी जितनी शक्तियाँ पूर्वमें कही जा चुकी हैं उतनी ही उसकी प्रकृतियाँ हैं, ऐसा ग्रहण करना चाहिये।
गोत्र कर्मकी कितनी प्रकृतियाँ हैं ॥ १८ ॥ यह सूत्र सुगम है। गोत्रकर्मकी दो प्रकृतियाँ हैं ॥ १९ ॥
उच्चगोत्रको उत्पन्न करनेवाली और नीचगोत्रको उत्पन्न करनेवाली, इस प्रकार गोत्रकी दो प्रकतियाँ हैं। अवान्तर भेदसे यद्यपि वे बहुत हैं तो भी ग्रन्थके बढ़ जानेसे अथवा अर्थापत्तिसे उनका ज्ञान हो जानेके कारण उनको यहाँ नहीं कहा है।
१ ताप्रतावतः प्राक 'सुगम' इत्यधिकः पाठः । २ अ-श्रा-काप्रतिषु 'दोयपयडीअो' इति पाठः।
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