Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 509
________________ ४७६ ] इक्खंडागमे वेयणाखंड जहण्णा वा अजहण्णा वा, जहण्णादो अजहणा पदिदा ॥ ३१८ ॥ सुमं । [ ४, २, १३, ३१८. छट्ठाण - जस्स गोदवेयणा भावदो जहण्णा तस्स सत्तण्णं कम्माणं वेयणा भावदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ ३१६ ॥ गमं । णियमा जहण्णा अणतगुण भहिया ॥ ३२० ॥ कुदो ? सव्वविसुद्ध बादरते उ वाउकाइयपजत्तएसु उब्वेलिदउच्चागोदेसु णीचागोदस्स कय जहण्णभावेसु सेससव्वकम्माणमणुभागस्स अनंतगुणत्तवलंभादो । एवं जहण परत्थाणवेयणसण्णियासे समत्ते वेयणसणियासविहाणे ति समत्तमणियोगद्दारं । वह जघन्य भी होती है और अजघन्य भी होती है । जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य छह स्थानों में पतित होती है ।। ३१८ ॥ यह सूत्र सुगम है । जिस जीवके गोत्रकी वेदना भावकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके सात कर्मोंकी वेदना भावकी अपेक्षा क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ ३१९ ॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य अनन्तगुणी अधिक होती है ॥ ३२० ॥ इसका कारण यह है कि जिन्होंने उच्च गोत्रकी उद्वेलना की है तथा नीच गोत्र के अनुभागको जघन्य किया है ऐसे सर्वविशुद्ध बादर तेजकायिक एवं वायुकायिक जीवोंमें शेष सब कर्मोंका अनुभाग अनन्तगुणा पाया जाता है। Jain Education International इस प्रकार जघन्य परस्थान वेदनाके संनिकर्ष के समाप्त होनेपर वेदनासंनिकर्षविधान नामक अनुयोगद्वार समाप्त हुआ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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