Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४, २, १३, ३५.] वेयणसपिणयासविहाणाणियोगद्दारं
[ ३६१ एत्थ जहा उक्कस्सदव्वे णिरुद्ध भावस्स छट्ठाणपदिदत्तं परूविदं तहा एत्थ वि . परूवेदव्यं, विसेसाभावादो।
जस्स णाणावरणीयवेयणा भावदो उकस्सा तस्स दव्वदो किमुकस्सा अणुकस्सा ॥ ३३ ॥
सुगममेदं । उकस्सा वा अणकस्सा वा ॥ ३४॥
दुचरिम-तिचरिमसमयप्पहुडि हेट्ठा जाव अंतोमुहुत्तं ताव पुव्वमेव जदि उक्कस्सागुभागं बंधिद्ण णेरइयचरिमसमए दव्वमुक्कस्सं कदं तो भावेण सह दव्वं पि उक्कस्सं होदि । अध' भावे उक्कस्से जादे वि जदि दव्वमुक्कस्सभावं ण वणउदि' तो दव्ववैयणा अणुक्कस्सा होदि त्ति गेण्हिदव्वं ।
उक्कस्सादो अणुक्कस्सा पंचट्ठाणपदिदा॥ ३५ ॥
काणि पंच हाणाणि ? अणंतभागहीण--असंखेजभोगहीण-संखेज्जभागहीण-संखेजगुणहीण-असंखेजगुणहीणाणि त्ति पंचट्ठाणाणि । एदेसिं पंचट्ठाणाणं जहा उक्कस्सकाले णिरुद्ध दव्वस्स पंचविहा हाणपरूवणा कदा तधा एत्थ वि कायव्वा, अविसेसादो।।
यहाँ जिस प्रकारसे उत्कृष्ट द्रव्यकी विवक्षामें भावके छह स्थानों में पतित होनेकी प्ररूपणा की गई है, उसी प्रकारसे यहाँ भी उसकी प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है।
जिस जीवके ज्ञानावरणीयकी वेदना भावकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है उसके द्रव्यकी अपेक्षा वह क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥ ३३ ॥
यह सूत्र सुगम है। वह उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी ॥ ३४ ॥
द्विचरम और त्रिचरम समयसे लेकर अन्तर्मुहूर्त काल तक यदि पूर्व में ही सत्कृष्ट अनुभागको बाँधकर नारक भवके अन्तिम समयमें द्रव्यको उत्कृष्ट कर चुका है तो भावके साथ द्रव्य भी उत्कृष्ट होता है। और यदि भावके उत्कृष्ट होनेपर भी द्रव्य उत्कृष्टताको प्राप्त नहीं होता है तो द्रव्यवेदना अनुत्कृष्ट ही होती है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये।
वह उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट पाँच स्थानों में पतित है ॥ ३५॥
वे पाँच स्थान कौनसे हैं ? अनन्तभागहीन, असंख्यातभागहीन, संख्यातभागहीन, संख्यातगुणहीन और असंख्यातगुणहीन ये वे पाँच स्थान हैं। उत्कृष्ट कालकी विवक्षामें जिस प्रकार इन पाँच स्थानोंसे सम्बन्धित द्रव्यकी पाँच प्रकार स्थानप्ररूपणा की गई है उसी प्रकार यहाँ भी करनी • चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है।
१ अ-श्रा-काप्रतिषु 'अत्थ', ताप्रती 'अत्थ ( 2 )' इति पाठः । २ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-काप्रत्योः 'ण अणमदि', आप्रतौ ‘ण वणवदि', ताप्रतौ ‘णवणमदि' इति पाठः ।
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