Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 464
________________ ४, २, १३, १६२ ] वेयणसण्णियासविहाणाणियोगद्दारं [ ४३१ एगखंड मे तेण जहण्णकालदव्वे एगसमयपबद्धस्स संखेज्जदिभागमेत्ते भागे हिदे असंखेज्जरूवोवलं भादो । तस्स सुगमं । खेत्तदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ १५६ ॥ णियमा अजहण्णा' असंखेज्जगुण भहिया ॥ १६० ॥ * कुदो ? आउअजहण्णखेत्तेण अंगुलस्स संखेज्जदिभागमे तजहण कालजहण्णखेत्ते ' भागे हिदे पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागवलंभादो | तस्स भावदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ सुगमं । णियमा अजहण्णा अणंतगुणब्भहिया ॥ १६२ ॥ कथम जो गिचरिम समय जहण्णदव्वभावो जहण्णभावादो अनंतगुणो ? ण एस दोसो, सहावदो चैव तिरिक्खाउआणुभागादो मणुसाउअभावस्य अनंतगुणत्ता । खवगसेडीए पत्तघादस्स भावस्स कघमणंतगुणत्तं ? ण, आउअस्स खवगसेडीए पदेसस्स गुणसेड - जिराभावो व डिदि - अणुभागाणं घादाभावादो । १६१ ॥ खण्ड मात्र जघन्य द्रव्यका एक समय प्रबद्ध के संख्यातवें भाग मात्र जघन्य कालके साथ रहनेवाले द्रव्य में भाग देनेपर असंख्यात रूप पाये जाते हैं । उसके क्षेत्रको अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजयन्य ॥ १५६ ॥ यह सूत्र सुगम है । वह नियम से अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक होती है ॥ १६० ॥ कारण कि आयुके जघन्य क्षेत्रका अंगुलके संख्यातवें भाग प्रमाण जघन्यकाल सम्बन्धी जघन्य क्षेत्र में भाग देनेपर पल्योपमका असंख्यातवाँ भाग पाया जाता है । उसके भावकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ १६१ ॥ यह सूत्र सुगम है । वह नियम से अजघन्य अनन्तगुणी अधिक होती है ॥ १६२ ॥ शंका- अयोगकेवली के अन्तिम समय सम्बन्धी जघन्य द्रव्यका भाव जघन्य भावकी अपेक्षा अनन्तगुणा कैसे है ? समाधान- यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, स्वभावसे ही तिर्यंच आयुके अनुभागसे मनुव्यायुका भाव अनन्तगुणा है । शंका- क्षपकश्रेणिमें घातको प्राप्त हुआ अनुभाग अनन्तगुणा कैसे हो सकता है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, क्षपकश्रेणिमें आयुकर्मके प्रदेशकी गुणश्रेणिनिर्जरा के अभाव के समान स्थिति और अनुभाग के घातका अभाव है । १ ताप्रतौ ' जहण्णा' इति पाठः । २ - प्रत्योः '- मेत्तजहण्णखेत्ते इति पाठ: । ३ - काप्रत्योः '- णिजराभावोवद्विदिश्रणुभागाणं', श्राप्रतौ 'णिजराभावो व दिअणुभागाणं', ताप्रतौ 'णिजराभावो वट्टिदश्रणुभागाणं' इति पाठः । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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