Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४, २, १३, १८०.] वेयणसण्णियासविहाणाणियोगदारं
[४३५ गुणसेडीए विणासिज्जमाणअसंखेजसमयपबद्धाणमेत्थुवलंभादो। पुणो एदस्स दव्व. स्सुवरि परमाणुत्तरकमेण चड्ढावेदव्वं जाव जहण्णदव्यमुक्कस्ससंखज्जेण खंडिय तत्थ एगखंडमेत्तं वड्डिदे त्ति । ताधे दव्वं संखेज्जभागमहियं होदि । एवं संखेज्जगुणब्भहियअसंखेज्जगुणब्भहियत्तं च जाणिदण परूवेदव्वं ।
तस्स कालदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ १७७॥ सुगमं । णियमा अजहण्णा असंखेज्जगुणब्भहिया ॥ १७८॥
कुदो ? ओघजहण्णकालमेगसमयं पेक्खिदूण खेत्त-दव्व-कालस्स पलिदोवमस्स असंखेज्जदिमागेणूणसागरोवमवेसत्तभागस्स असंखेज्जगुणत्तुवलंभादो ।
तस्स भावदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ १७६ ॥ सुगमं ।
जहण्णा वा अजहण्णा वा। जहण्णादो अजहण्णा छट्ठाणपदिदा ॥ १८०॥
जदि जहण्णोगाहणाए द्विदजीवेण मज्झिमपरिणामेहि णामभावो बद्धो' तो खेत्तेण क्योंकि, यहाँ एक मनुष्य भवमें संयम गुणश्रणि द्वारा नष्ट किये जानेवाले असंख्यात समयप्रबद्ध पाये जाते हैं । फिर इस द्रव्यके ऊपर परमाणु अधिकके क्रमसे जघन्य द्रव्यको उत्कृष्ट संख्यातसे खण्डित करके उसमें एक खण्ड मात्रकी वृद्धि हो जाने तक बढ़ाना चाहिये। उस समय द्रव्य संख्यातवें भागसे अधिक होता है। इसी प्रकारसे संख्यातगुणी अधिकता और असंख्यातगुणी अधिकताकी भी जानकर प्ररूपणा करनी चाहिये।
उसके कालकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ १७७ ॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक होती है ॥ १७८ ।।
कारण कि एक समय प्रमाण ओघ जघन्य कालकी अपेक्षा क्षेत्र व द्रव्य सम्बन्धी जो काल पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन एक सागेरापमके सात भागोंमेंसे दो भाग प्रमाण है वह असंख्यातगुणा पाया जाता है।
उसके भावको अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ १७९ ॥ यह सूत्र सुगम है।
वह जघन्य भी होती है और अजघन्य भी। जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य छह स्थानोंमें पतित होती है ॥ १८० ॥
यदि जघन्य अवगाहनामें स्थित जीवके द्वारा मध्यम परिणामोंसे नामकर्मका अनुभाग १ अ-आ-काप्रतिषु 'बंधो' इति पाठः।
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