Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati

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Page 501
________________ ४६८] छक्खंडागमे वेयणाखंड [४, २, १३, २८५. होदूण सव्वत्थ गलदि तो दीवसिहादव्वं सगजहण्णदव्वादो संखेज्जभागब्भहियं होदि । अध एगपंचिंदियसमयपबद्धस्स संखेज्जभागमेत्तमुदयगदगोवुच्छपमाणं सव्वत्थ जदि होदि तो सगजहण्णदव्वादो दीवसिहादव्वं संखेज्जगणं होदि। अध एगपंचिंदियसमयपबद्धस्स असंखेज्जदिभागमेत्तमोकड्डुक्कड्डणवसेण सव्वत्थ उदयगदगोवुच्छदव्वं होदि तो सगजहण्णदव्वादो असंखेज्जगुणं होदि । ण च सम्मादिहिम्मि चेव एसो कमो, विमोहिबहुलेसु मिच्छाइट्ठीसु वि एवं चेव संजादे विरोहाभावादो। ओकड्डणाए एवंविहा णिज्जरा होदि त्ति कधं णव्वदे ? चउहाणपदिदसुत्तणिद्देसस्स अण्णहा अणुववत्तीदो। भुजगारप्पदरद्धोसु' सुकंधारपक्खा इव सव्वजीवेसु वट्टमाणासु जेसिं जीवाणमप्पदरद्धादो भुजगारद्धा कमेण असंखेज्जभागमहिया संखेजभागभहिया संखेजगुणभहिया असंखेज्जगुणमहिया तेसिं दव्वं असंखेजभागब्महियं संखेजभाग महियं संखेज्जगणब्भहियं असंखेजगणब्भहियं च कमेण होदि ति वुत्तं होदि। जस्स णाणावरणीयवेयणा खेत्तदो जहण्णा तस्स सत्तण्णं कम्माणं वेयणा खेत्तदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ २८५ ॥ सुगमं । द्रव्य अपने जघन्य द्रव्यकी अपेक्षा संख्यातवें भागसे अधिक होता है । यदि उदयगत गोपुच्छाका प्रमाण सर्वत्र पंचेन्द्रिय सम्बन्धी एक समयप्रबद्धके संख्यातवें भाग मात्र होता है तो दीपशिखाका द्रव्य अपने जघन्य द्रव्यकी अपेक्षा संख्यातगुणा होता है। यदि उदयगत गोपुच्छाका द्रव्य सर्वत्र अपकर्षण-उत्कर्षणके वश पंचेन्द्रिय सम्बन्धी एक समयप्रबद्धके असंख्यातवें भाग मात्र होता है तो वह अपने जघन्य द्रव्यसे असंख्यातगुणा होता है। यह क्रम केवल सम्यग्दृष्टि जीवके ही नहीं होता है, क्योंकि, अतिशय विशुद्धि युक्त मिध्यादृष्टियोंमें भी ऐसा होने में कोई विरोध नहीं है।। शङ्का-अपकर्षण द्वारा इस प्रकारकी निर्जरा होती है, यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ? समाधान-चूँ कि इसके बिना चतुःस्थान पतित सूत्रका निर्देश घटित नहीं होता, अतः इसीसे उक्त निर्जरा परिज्ञात होती है। सब जीवोंमें शुक्ल पक्ष और कृष्ण पक्षके समान भुजाकारकाल और अल्पतरकालके रहनेपर जिन जीवोंके अल्पतरकालकी अपेक्षा भुजाकारकाल क्रमसे असंख्यातवें भागसे अधिक, संख्यातवें भागसे अधिक, संख्यातगुणा अधिक और असंख्यातगुणा अधिक होता है उनका द्रव्य क्रमसे असंख्यातवें भागसे अधिक, संख्यातवें भागसे अधिक, संख्यातगुणा अधिक और असंख्यातगुणा अधिक होता है, यह उसका अभिप्राय है। जिस जीवके ज्ञानावरणीयकी वेदना क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके सात कर्मोंकी वेदना क्षेत्रकी अपेक्षा क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ २८५ ॥ यह सूत्र सुगम है। १ अ-श्रा-काप्रतिषु 'भुजगारप्पदरत्थासु', ताप्रतौ 'भुजगारप्पदरत्था [ सु' इति पाठः। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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