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छक्खंडागमे वेयणाखंडे
[ ४, २, १३, २७५
एदमजोगिचरिमसमयदव्वं उकस्सजोगेण बद्धएगसमयपबद्धस्स संखेज्जदिभागमे' | कुदो वदे ? जदा जदा आउअं बंधदि तदा तदा तप्पा ओग्गेण उकस्सएण जोगेण बंधदित्ति वयणादो णव्वदे | दीवसिहादव्वं पुण जहण्णजोगेण बद्धएगसमयपबद्धस्स असंखेजदिभागमेत्तं होदि । तेण जहण्णाउअवेयणादो इमा असंखेजगुणा । तस्स णामा - गोदवेणा दव्वदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ २७५ ॥ सुगमं ।
जहण्णा वा अण्णा वा, जहण्णादो अजण्ण्णा विद्याणपदिदा ॥ २७६ ॥
दि सुद्धा विसयख विद कम्मंसियलक्खणेणागदो तो वेयणीयदव्ववेयणाए सह णामा-गोदाणं दव्ववेयणा वि जहण्णा होदि । अह णागदो' तो अजहण्णा होतॄण विट्ठाण - पदिदा होदि । पञ्जवडियणयाणुग्गहट्ठमुत्तरमुत्तं भणदि
अनंतभाग भहिया वा असंखेजभागव्भहिया वा ॥ २७७ ॥
यह योगकेवलीका अन्तिम समय सम्बन्धी द्रव्य उत्कृष्ट योगसे बाँधे गये एक समयप्रबद्ध के संख्यातवें भाग मात्र है ।
शङ्का - यह किस प्रमाणसे जाना जाता है ?
समाधान- वह "जब जब आयुको बाँधता है तब तब तत्प्रायोग्य उत्कृष्ट योगसे बाँधता है" इस वचनसे जाना जाता है ।
परन्तु दीपशिखा द्रव्य जघन्य योगसे बाँधे गये एक समयप्रबद्ध के असंख्मातवें भाग मात्र होता है। इस कारण आयुकी जघन्य वेदनासे यह वेदना असंख्यातगुणी है ।
उसके नाम और गोत्रकी वेदना द्रव्यकी अपेक्षा क्या जघन्य होती है या अजघन्य ।। २७५ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
वह जघन्य भी होती है और अजघन्य भी, जघन्यसे अजघन्य दो स्थानों में पतित होती है ।। २७६ ॥
यदि शुद्ध के विषयभूत क्षपितकर्माशिक स्वरूपसे आया है तो वेदनीकी वेदना साथ नाम व गोत्रकी द्रव्यवेदना भी जघन्य होती है । परन्तु यदि उक्त स्वरूपसे नहीं आया है तो वह अजन्य होकर दो स्थानोंमें पतित है । अब पर्यायार्थिक नयके अनुग्रहार्थ आगेका सूत्र कहते हैं
अनन्तभाग अधिक भी होती है और असंख्यात भाग अधिक भी होती है || २७७॥
१ ताप्रतौ 'संखेजभागमेत्तं' इति पाठः । २ - श्राकाप्रतिषु 'जहण्णादो', ताप्रतौ 'ग्रजहण्णा [ दो ]' इति पाठ: । ३ अ श्राप्रत्योः 'जहण्णागदो', काप्रतौ जहणागदो ताप्रतौ 'ग्रहण्णागदो' इति पाठः ।
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