Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४, २, १३, २५४ वेयणसण्णियासविहाणाणियोगद्दारं
[४५७ सुगमं । णियमा अणुकस्सा अणंतगुणहीणा ॥ २५३ ॥
अणुक्कस्सत्तमणेयविहमिदि' अणप्पिदाणुक्कस्सपडिसेहट्ठमणंतगुणहीणमिदि भणिदं । किमट्ठमणंतगुणहीणत्तं ? खवगपरिणामेहि पत्तघादत्तादो।
तस्स मोहणीयवेयणा भावदो णत्थि ॥ २५४॥
सुहुमसांपराइयचरिमसमए वेयणीयस्स उक्कस्साणुभागबंधो जादो । ण च सुहुमसांपराइए मोहणीयभावो णत्थि, भावेण विणा दव्यकम्मस्स अत्थित्तविरोहादो सुहुमसांपराइयमण्णाणुवत्तीदो वा । तम्हा मोहणीयवेयणा भावविसया णत्थि त्ति ण जुज्जदे ? एस्थ परिहारो उच्चदे। तं जहा-विणासविसए दोणि णया होति उप्पादाणुच्छेदो अणुप्पादाणुच्छेदो चेदि । तत्थ उप्पादाणुच्छेदो णाम दव्वट्टियो। तेण संतावत्थाए चेव विणासमिच्छदि, असंते बुद्धिविसयं चाइकंतभावेण वयणगोयराइकते अभावववहाराणुववत्तीदो। ण च अमावा णाम अत्थि, तप्परिच्छिदंतपमाणामावादो, संतविसयाणं
यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अनुत्कृष्ट अनन्तगुणी हीन होती है ।। २५३॥
अनुत्कृष्टता चूँकि अनेक प्रकार की है, अतएव अविवक्षित अनुत्कृष्टताका प्रतिषेध करनेके लिये 'अनन्तगुणी हीन' ऐसा कहा है।
शङ्का-अनन्तगुणहीनता किसलिये कही है ?
समाधान-क्षपक परिणामों द्वारा घातको प्राप्त होनेके कारण वह अनन्तगुणी हीन होती है ऐसा कहा है।
उक्त.जीवके मोहनीयकी वेदना भावकी अपेक्षा नहीं होती है ॥ २५४ ॥
शङ्का-सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानके अन्तिम समयमें वेदनीयका अनुभागबन्ध उत्कृष्ट हो जाता है। परन्तु उस सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानमें मोहनीयका भाव नहीं हो, ऐसा सम्भव नहीं है, क्योंकि, भावके बिना द्रव्य कर्मके रहनेका विरोध है, अथवा वहाँ भावके माननेपर 'सूक्ष्मसाम्परायिका यह संज्ञा ही नहीं बनती है । इस कारण मोहनीयकी भावविषयक वेदना नहीं है, यह कहना उचित नहीं है?
समाधान-यहाँ इस शङ्काका परिहार कहते हैं। वह इस प्रकार है--विनाशके विषयमें दो नय हैं उत्पादानुच्छेद और अनुत्पादानुच्छेद । उत्पादानुच्छेदका अर्थ द्रव्यार्थिक नय है। इसलिये वह सद्भावकी अवस्थामें ही विनाशको स्वीकार करता है, क्योंकि, असत् और बुद्धिविषयतासे अतिक्रान्त होनेके कारण वचनके अविषयभूत पदार्थमें अभावका व्यवहार नहीं बन सकता। दूसरी बात यह है कि अभाव नामका कोई स्वतन्त्र पदार्थ नहीं है, क्योंकि, उसके ग्राहक प्रमाणका अभाव है। कारण कि सत्को विषय करनेवाले प्रमाणोंके असत् में प्रवृत्त होनेका विरोध है।
१ अ-श्रा-काप्रतिषु '-मणेणविह' इति पाठः । २ मप्रतिपाठौऽयम् । अ-श्रा-का-ता प्रतिषु 'णयण' इति पाठः । ३ अ-श्रा-काप्रतिषु 'सत्त' इति पाठः। ...
छ. १२-५८
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