Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४, २, १३, २६१.] वेयणसण्णियासविहाणाणियोगहारं
[४५९ खवगसेडिम्मि देवाउअमत्थि, बद्धाउआणं खवगसेडिसमारोहाभावादो। अस्थि च मणुस्साउअं, ण तस्साणुभागो उक्कस्सो होदि; असंजदसम्मादिविणा मिच्छादिहिणा वा बद्धस्स देवाउअं पेक्खिदण अप्पसत्थस्स उक्कस्सत्तविरोहादो । तेण अणंतगुणहीणा ।
तस्स णामा-गोदवेयणा भावदो किमुक्कस्सा अणुकस्सा ॥२५७॥ सुगमं । उक्कस्सा ॥ २५८॥ सुहुमसांपराइयम्मि सव्वुक्कस्सविसोहीहि तिण्णं पि उक्कस्सबंधुवलंभादो । एवं णामा-गोदाणं ॥ २५६ ॥
जहा वेयणीयस्स सण्णियासो कदो तहा णामा-गोदाणं पि कायबो, विसेसाभावादो।
जस्स आउअवेयणा भावदो उक्कस्सा तस्स सत्तण्णं कम्माणं भावदो किमुक्कस्सा अणुकस्सा ॥ २६० ॥
सुगमं ।
णियमा अणुकस्सा अणंतगुणहीणा ॥ २६१ ॥ होती है । परन्तु क्षपकश्रेणिमें देवायु है नहीं, क्योंकि, बद्धायुष्क जीवोंका क्षपकश्रेणिपर चढ़ना सम्भव नहीं है । क्षपकश्रेणिमें मनुष्यायु अवश्य है, परन्तु उसका अनुभाग उत्कृष्ट नहीं होता, क्योंकि, असंयत सम्यग्दृष्टि अथवा मिथ्यादृष्टिके द्वारा बाँधी गई मनुष्यायु चूँ कि देवायुकी अपेक्षा अप्रशस्त है, अतएव उसके उत्कृष्ट होनेका विरोध है । इसी कारण वह अनन्तगुणी हीन है।
उसके नाम व गोत्र कर्मकी वेदना भावकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥ २५७॥
यह सूत्र सुगम है। उत्कृष्ट होती है ॥ २५८ ॥
कारण की सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानमें सर्वोत्कृष्ट विशुद्विके द्वारा तीनों ही कर्मोंका उत्कृष्ट बन्ध पाया जाता है।
इसी प्रकार नाम और गोत्र कर्मकी प्ररूपणा करनी चाहिये ॥२५६॥
जिस प्रकारसे वेदनीयका संनिकर्ष किया गया है उसी प्रकारसे नाम व गोत्र कर्मके भी संनिकर्षकी प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है।
जिस जीवके आयुकी वेदना भावकी अपेक्षा उत्कृष्ट होती है उसके सात कर्मोको वेदना भावकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥ २६० ॥
यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अनुत्कृष्ट अनन्तगुणी हीन होती है ॥ २६१ ॥
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