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४६०] - छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, १३, २६२ ___ कुदो १ अप्पमत्तसंजदप्पहुडि उवरिमसंजदेसु पमत्तसंजदेसु वेमाणियदेवेसु च आउअस्स उक्कस्सभावुवलंभोदो। ण च एदेसु घादिकम्माणमुक्कस्साणुभागो अस्थि, विसोहीए घादं पाविदूण अणंतगुणहीणत्तमुवगयाणमुक्कस्सत्तविरोहादो। ण च तिण्णमघादिकम्माणमुक्कस्सओ अणुभागो अस्थि, तस्स खीणकसायादिसु चेव संभवादो। ण च खीणकसायादिसु आउअस्स उक्कस्सभावो अस्थि, खवगसेडिम्मि देवाउअस्स संताभावादो' । तम्हा अणंतगुणहीणत्तं सिद्धं । एवमुक्कस्सओ परत्थाणवेयणासण्णियासो समत्तो।
जो सो थप्पो जहण्णओ परत्थाणवेयणासण्णियासो सो चउविहो-दव्वदो खेत्तदो कालदो भावदो चेदि ॥ २६२ ॥
जहण्णवेयणसण्णियासो चउविहो चेव, दबट्ठियणयावलंबणादो। पज्जवट्ठियणए पुण अवलंबिज्जमाणे पण्णारसविहो होदि । सो जाणिय वत्तव्यो ।
जस्स गाणावरणीयवेयणा दव्वदो जहण्णा तस्स दंसणावरणीय-अंतराइयवेयणा दव्वदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥२६३ ॥
सुगमं। ___कारण यह कि अप्रमत्तसंयतसे लेकर आगेके संयत जीवोंमें, प्रमत्तसंयतोंमें और वैमानिक देवोंमें आयुका उत्कृष्ट अनुभाग पाया जाता है। परन्तु इन जीवोंमें घाति कर्मोंका उत्कृष्ट अनुभाग नहीं है, क्योंकि, विशुद्धि द्वारा घातको प्राप्त होकर अनन्तगुणी हीनताको प्राप्त हुए उनके उत्कृष्ट होनेका विरोध है। तीन अघाति कर्मोंका भी उनमें उत्कृष्ट अनुभाग सम्भव नहीं है, क्योंकि, वह क्षीणकषाय आदि जीवोंमें ही सम्भव है। परन्तु क्षीणकषाय आदि जीवोंमें आयुका उत्कृष्ट भाव सम्भव नहीं हीं है, क्योंकि, क्षपक णिमें देवायुके सत्त्वका अभाव है। इस कारण उक्त सात कोंकी भाववेदनाकी अनन्तगुणहीनता सिद्ध है। इस प्रकार उत्कृष्ट परस्थान वेदनासंनिकर्ष समाप्त हुआ।
___ जो जघन्य परस्थान वेदनासंनिकर्ष स्थगित किया गया था वह द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावकी अपेक्षासे चार प्रकारका है ॥ २६२ ॥
जघन्य वेदनासन्निकर्ष चार प्रकारका ही है, क्योंकि द्रव्यार्थिक नयका अवलम्बन है। -परन्तु पर्यायार्थिक नयका अवलम्बन करनेपर वह पन्द्रह प्रकारका है (प्रत्येक भङ्ग ४, द्वि०सं०६, वि० सं०४, च० सं० १, ४+६+४+१=१५)। उसकी जानकार प्ररूपणा करनी चाहिये।।
___ जिस जीवके ज्ञानावरणीयकी वेदना द्रव्यकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके दर्शनावरणीय और अन्तरायको वेदना द्रव्यकी अपेक्षा क्यो जघन्य होतो है या अजघन्य ॥ २६३ ॥
यह सूत्र सुगम है। १ अ-श्रा-काप्रतिषु 'संतभावादो', ताप्रतौ 'संत (ता) भावादो' इति पाठः । . . . . .
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