Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४, २, १३, २०५. J वेयणसण्णियासविहाणाणियोगदारं
[ ४४१ कुदो ? ओघजहण्णकालेण एगसमएण जहण्णखेत्तकाले भागे हिदे पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागेणूणसागरोवमबेसत्तभागुवलंभादो।।
तस्स भावदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥२०३ ॥ सुगमं । णियमा अजहण्णा अणंतगुणब्भहिया ॥ २०४॥
बादरतेउ-वाउक्काइएसु उक्कस्सविसोहीए घादिदणीचागोदाणुभागेसु गोदाणुभोगं जहणं करिय तेण जहण्णाणुमागेण सह उजुगदीए सुहुमणिगोदेसु उप्पज्जिय तिममयाहार-तिसमयतब्भवत्थस्स खत्तेण सह भावो जहण्णओ किण्ण जायदे ? ण, बादरतेउवाउक्काइयपज्जत्तएसु जादजहण्णाणुभागेण सह अण्णत्थ उप्पत्तीए अभावादो। जदि अण्णत्थ उपज्जदि तो णियमा अर्णतगुणवड्डीए वड्विदो चेव' उप्पज्जदि ण अण्णहा। कधमेदं णव्वदे ? जहण्णखेत वेयणाए भाववेयणा णियमा अणंतगुणा त्ति सुत्तवयणादो।
जस्स गोदवेयणा कालदो जहण्णा तस्स दव्वदो किं जहपणा अजहण्णा ॥ २०५ ॥
क्योंकि, एक समय रूप ओघ जघन्य कालका जघन्य क्षेत्रके कालमें भाग देनेपर पल्योपमके असंख्यातवें भागसे हीन एक सागरोपमके सात भागोंमेंसे दो भाग पाये जाते हैं ।
उसके भावकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥२०३॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य अनन्तगुणी अधिक होती है ॥२०४॥
शङ्का-जिन्होंने उत्कृष्ट विशुद्धिके द्वारा नीचगोत्रके अनुभागका घात कर लिया है उन बादर तेजकायिक व वायुकायिक जीवोंमें गोत्रके अनुभागको जघन्य करके उस जघन्य अनुभागके साथ ऋजुगतिके द्वारा सूक्ष्म निगोद जीवोंमें उत्पन्न होकर त्रिसमयवर्ती आहारक और तद्भवस्थ होनेके तृतीय समयमें वर्तमान उसके क्षेत्रके साथ भाव जघन्य क्यों नहीं होना है?
समाधान-नहीं, क्योंकि, बादर तेजकायिक व वायुकायिक पर्याप्तक जीवों में उत्पन्न जघन्य अनुभागके साथ अन्य जीवों में उत्पन्न होना सम्भव नहीं है। यदि वह अन्य जीवोंमें उत्पन्न होता है तो नियमसे वह अनन्तगुणवृद्धिसे वृद्धिको प्राप्त होकर ही उत्पन्न होता है, अन्य प्रकारसे नहीं।
शका-यह किस प्रमाणसे जाना जाता है?
समाधान-वह “जघन्य क्षेत्रवेदनाके साथ भाववेदना नियमसे अनन्तगुणी होती है" इस सूत्रवचनसे जाना जाता है।
जिस जीवके गोत्रकी वेदना कालकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके वह क्या द्रव्यकी अपेक्षा जघन्य होती है या अजघन्य ॥ २०५ ॥
१ श्र-श्रा-काप्रतिषु 'वड्डिदो ण चेव'; तापतौ 'वट्टिदो [ ण ] चेव' इति पाठः। २ अ-श्रा-काप्रतिषु 'जहण्णक्खेत्त' इति पाठः।
छ, १२-५६
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