Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४, २, १३, २२५.] . वेयणसण्णियासविहाणाणियोगदारं
[४४७ गुरुवदेसादो । तम्हा दो चेव हाणीयो गुणिदकम्मंसिए होति ति सिद्धं ।
तस्स आउअवेयणा दव्वदो किमुक्कस्सा अणुकस्सा ॥ २२३॥ सुगम । णियमा अणुकस्सा असंखेजगुणहीणा ॥॥२२४ ॥
कुदो ? गुणिदकम्मंसियचरिमसमयणेरइयआउअदव्यं एगसमयपबद्धस्स असंखेज्जदिभागो, दिवड्डगुणहाणिगुणिदअण्णोण्णब्भत्थरासिणा बंधगद्धामेत्तसमयपबद्धेसु ओवट्टिदेसु एगसमयपबद्धस्स असंखेज्जभागुवलंभादो' । आउअस्स उकस्सदव्वं पुण 'बेउक्कस्सबंधगद्धामेत्तसमयपबद्धा । तेण सगउकस्सदव्वं पेक्खिदूण गुणिदकम्मंसियआउअदब्ववेयणा असंखेज्जगुणहीणा । जदि वि आउअदबम्मि परभवियम्मि असंखज्जाओ गुणहाणीयो ण गलंति तो वि णाणावरणीयादिसत्तकम्मं गुणिदकम्मसिए आउअदव्वस्स असंखेज्जगुणहीणमेव, जदा जदा आउअंबंधदि तदा नदा तप्पाओग्गेण जहण्णएण जोगेण बंधदि त्ति सुत्तवयणादो।
एवं छण्णं कम्माणमाउववजाणं ॥ २२५ ॥
जहा णाणावरणीयस्स परूवणा कदा तहा छण्णं कम्माणं कायव्या, विसेसाभावादो। समयप्रबद्धका ही क्षय होता है; ऐसा गुरुका उपदेश है। इस कारण गुणितकर्माशिक जीवमें दो ही हानियाँ होती हैं, यह सिद्ध होता है।
उसके आयु कर्मकी वेदना द्रव्यकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट होती है या अनुस्कृष्ट ॥ २२३ ॥
यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अनुत्कृष्ट असंख्यातगुणी हीन होती है ॥ २२४ ॥
कारण यह कि गणितकर्माशिक चरम समयवर्ती नारकीका प्रायव्य एक समयप्रबदके असंख्यातवें भाग प्रमाण होता है, क्योंकि, डेढ़ गुणहानियोंसे गुणित अन्योन्याभ्यस्त राशि द्वारा बन्धककाल प्रमाण समयप्रबद्धोंके अपवर्तित करनेपर एक समयप्रबद्धका असंख्यातवाँ भाग पाया जाता है। परन्तु आयु कर्मका उत्कृष्ट द्रव्य दो उत्कृष्ट बन्धककाल प्रमाण समयबद्धों के बराबर है। इसलिये अपने उत्कृष्ट द्रव्यकी अपेक्षा गुणितकौशिक जीवके आयु द्रव्यकी वेदना असंख्यातगुणी हीन होती है। यद्यपि परभव सम्बन्धी आयु कर्म के द्रव्यमें से असंख्यात गुणहानियाँ नहीं गलती हैं तो भी ज्ञानावरणादिक सात कर्म युक्त गुणितकौशिक जीवमें आयुका द्रव्य असंख्यातगुणा हीन ही होता है, क्योंकि, जब जब आयु कमको बाँधता है तब तब तत्प्रायोग्य जघन्य योगसे बाँधता है, ऐसा सूत्र वचन है।
इसी प्रकारसे आयुको छोड़ कर शेष छह कर्मोंकी प्ररूपणा है ।। २२५ ॥
जिस प्रकार ज्ञानावरणीयकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार छह कर्मों की प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है।
१ अ-श्रा काप्रतिषु 'असंखेजपाउवलंभादो', ताप्रती 'असंखेज्जा (भाग) उवलंभादो' इति पाठः। २ अ-श्रा-काप्रतिषु 'पुण चेव उक्करस' इति माठः ।
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