Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४, २, १३, २१४. ]
arrafoणयासविहाणाणियोगद्दारं
[ ४४३
कुदो ! बादरते- वाउक्काइय पज्जत्त जहण्णाणु मागं पेक्खिदूण सव्वविसुद्वेण सुहुमसांपराइएण बद्धच्चागोदुकस्साणुभागस्स अनंतगुणत्तुचलंभादो ।
जस्स गोदवेयणा भावदो जहण्णा तस्स दव्वदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ २११ ॥
सुगमं ।
णियमा अजहण्णा चउट्ठाण दिदा ।। २१२ ॥
तप्पा ओग्ग' खविदकम्मं सियजहण्णदन्त्रमादिं कारण चत्त रिपुरिसे अस्सिदृण दव्वस्स चउट्ठाणपदिदत्तं परूवेदव्वं ।
तस्स खेत्तदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ २१३॥
सुगमं ।
णियमा अजहण्णा असंखेज्जगुण भहिया ॥ २१४॥
कुदो ? तिसमयआहार-तिसमयतब्भत्थमुहुमणिगोदजहण्णोगाहणं पेक्खिदूण जहण्णभावसामिवादरते उ वाउपज्जत्तओगाहणाए असंखेज्जगुणत्तदंसणादो | ण च सुहुमोगाहणार बादरोगाहणा सरिसा ऊणा वा होदि किं तु असंखेज्जगुणा चेव होदि । कुदो एदं वदे ? ओगाहणादंडयसुत्तादो ।
कारण यह कि बादर तेजकायिक व बादर वायुकार्यिक पर्याप्तकों में हुए जघन्य अनुभागकी अपेक्षा सर्वविशुद्ध सूक्ष्मसाम्परायिक संयत के द्वारा बाँधा गया उच्च गोत्रका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा पाया जाता है ।
जिस जीवके गोत्रकी वेदना भावकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके द्रव्यकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ २११ ॥
यह सूत्र सुगम है ।
वह नियमसे अजघन्य चार स्थानोंमें पतित होती है ।। २१२ ।।
तत्प्रायोग्य क्षपितकर्माशिक जीवके जघन्य द्रव्यसे लेकर चार पुरुषोंका आश्रय करके द्रव्यके चारस्थानों में पतित होनेकी प्ररूपणा करनी चाहिये ।
उसके क्षेत्रकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ २१३ ॥ यह सूत्र सुगम है ।
वह नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक होती है ।। २१४ ॥
कारण कि त्रिसमयवर्ती आहारक और तद्भवस्थ होनेके तृतीय समय में वर्तमान सूक्ष्म निगोद जीवकी जघन्य अवगाहना की अपेक्षा जघन्य भावके स्वामिभूत बादर तेजकायिक व बादर वायुकायिक पर्याप्तकी अवगाहना असंख्यातगुणी देखी जाती है । बादर जीवकी अवगाहना सूक्ष्म जीवकी अवगाहना के बराबर या उससे हीन नहीं होती है, किन्तु वह उससे असंख्यातगुणी ही होती है ।
१ - श्राकाप्रतिषु 'तप्पाश्रोग्गा-' इति पाठः ।
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