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४३४] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, १३, १७२. जहण्णा ॥ १७२ ॥ तत्थ जहण्णदव्वम्मि एगसमयट्ठिदि मोत्तूण 'अण्णहिदीणमभावादो। तस्स भावदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ १७३ ॥ सुगमं । णियमा अजहण्णा अणंतगुणब्भहिया ॥ १७४॥
कुदो ? सव्वविसुद्धण सुहुमणिगोदेण हदसमुप्पत्तियं कादूण उप्पाइदणामजहण्णाणुभागं पेक्खिय सुहुमसांपराइएण सव्वविसुद्धण बद्धजसकित्तिउक्कस्साणुभागस्स सुहुत्तादो घादवज्जियस्स' अणंतगणत्तुवलंभादो।
जस्स णामवेयणा खेत्तदो जहण्णा तस्स दव्वदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥१७५ ॥
सुगम । णियमा अजहण्णा चउहाणपदिदा ॥ १७६ ॥
तं जहा-खविदकम्मंसियलक्खणेण आगंतूण जदि तिचरिमभवे सुहुमेइंदिएसु उप्पज्जिय जहण्णखेत्तं कदं होदि तो दव्बमसंखेज्जभागब्भहियं, एकम्हि मणुस्सभवे संजम
वह जघन्य होती है ॥ १७२ ॥
कारण कि वहाँ जघन्य द्रव्यमें एक समय मात्र स्थितिको छोड़कर अन्य स्थितियोंका अभाव है।
उसके भावकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ १७३ ॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य अनन्तगुणी अधिक होती है ॥ १७४ ॥
कारण यह कि सर्वविशुद्ध सूक्ष्म निगोद जीवके द्वारा हतसमुत्पत्ति करके उत्पन्न कराये गये नाम कर्मके जघन्य अनुभागकी अपेक्षा सर्वविशुद्ध सूक्ष्मसाम्परायिक जीवके द्वारा बाघे गये यश कीर्ति के उत्कृष्ट अनुभागके शुभ होनेसे चूंकि उसका घात होता नहीं है, अत एव वह उससे अनन्तगुणा पाया जाता है।
जिसके नाम कर्मकी वेदना क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके द्रव्यकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ १७५ ॥
यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य चार स्थानोंमें पतित होती है ॥ १७६ ॥
वह इस प्रकारसे-क्षपितकर्माशिक स्वरूपसे आकरके यदि त्रिचरम भवमें सूक्ष्म एकेन्द्रियोंमें उत्पन्न होकर जघन्य क्षेत्र किया गया है तो द्रव्य असंख्यातवें भागसे अधिक होता है,
१ अ-कापत्योः 'अण्णे' इति पाठः । २ अ-श्रा-काप्रतिषु 'वडीयस्स', ताप्रती वड्डियन्स' इति पाठः ।
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