Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
४३८] छक्खंडागमे वैयणाखंड
[४, २, १३, १८९. अगलिदासंखेज्जसमयपबद्धत्तादो। उवरि परमाणुत्तरादिकमेण चत्तारि वि वड्डीओ परूवेदव्वाओ।
तस्स खेत्तदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ १८६ ॥ सुगमं ।
जहण्णा वा अजहण्णा वा, जहण्णादो अजहण्णा चदुट्ठाणपदिदा ॥ १६॥
जदि जहण्णभावसहिदजीवेण जहण्णमावद्धाए चेव अच्छिदण खेत्तं पि जहण्णं कदं होदि तो भावेण सह खेत्तवेयणा वि जहण्णा । अह ण जहणं कदं तो' अजहण्णा .च चदुट्ठाणपदिदा, तत्थ पदेसुत्तरादिकमेण खेत्तस्स चत्तारिवड्डिसंभवादो । उप्पण्णतदियसमयखेत्तं पदेसुत्तरादिकमेण तप्पाओग्गअसंखेज्जगुणवड्डिमुवगयचउत्थसमयजहण्णखेत्तण सरिसं होदि । कुदो ? चउत्थादिसु समएसु ओगाहणाए एयंताणुवड्डिजोगवसेण असंखेज्जगुणवड्डिदसणादो । एवं खेत्तवड्डी कायव्वा जाव जहण्णमावेण अविरुद्ध उक्कस्सखेत्तं जादं ति ।
तस्स कालदो कि जहण्णा अजहण्णा ॥१६१ ॥
सुगम। भागसे अधिक होता है, क्योंकि, वहाँ असंख्यात समयप्रबद्ध अगलित हैं। आगे परमाणु अधिक आदिके क्रमसे चारों ही वृद्धियोंकी प्ररूपणा करनी चाहिये।
उसके क्षेत्रकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ १८६ ।। यह सूत्र सुगम है।
वह जघन्य भी होती है और अजघन्य भी। जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य चार स्थानों में पतित होती है ॥ १९०॥
यदि जघन्य भाव सहित जीवके द्वारा जघन्य भावके काल में ही रह करके क्षेत्रको भी जघन्य कर लिया गया है तो भावके साथ क्षेत्रवेदना भी जघन्य होती है। परन्तु यदि क्षेत्रको जघन्य नहीं किया गया है तो वह अजघन्य चार स्थानोंमें पतित होती है, क्योंकि, वहाँ उत्तरोत्तर प्रदेश अधिक आदिके क्रमसे क्षेत्रके चारवृद्धियाँ सम्भव हैं। उत्पन्न होनेके तृतीय समयका क्षेत्र प्रदेश अधिक आदिके क्रमसे उसके योग्य असंख्यातगुणवृद्धिको प्राप्त हुए चतुर्थ समय सम्बन्धी जघन्य क्षेत्रके सदृश होता है, क्योंकि, चतुर्थादिक समयोंमें एकान्तानुवृद्धियोगके वशसे अवगाहनामें असंख्यातगुणवृद्धि देखी जाती है। इस प्रकार जघन्य भावसे अविरुद्ध उत्कृष्ट क्षेत्रके होने तक क्षेत्रकी वृद्धि करनी चाहिये।
उसके कालकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ।। १९१ ॥ यह सूत्र सुगम है। १ अ-आ-काप्रतिषु 'जहण्णा जहण्णकदं तो', ताप्रती जहण्णा जहण्णकदंतो' इति पाठः।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org