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४, २, १३, १५४.] वेयणसण्णियासविहाणाणियोगहारं
[४२६ तेण आउअजहण्णभावादो दीवसिहाजहण्णदव्वनावो अणंतगुणो त्ति सिद्धं ।
जस्स आउअवेयणा खेत्तदो जहण्णा तस्स दव्वदो' किं जहण्णा अजहण्णा ॥१५१॥
सुगमं । णियमा अजहण्णा असंखेजगुणभहिया ॥ १५२ ॥
तं जहा-जहण्णखेत्तट्ठियआउअदव्वं जदि वि जहण्णजोगेण जहण्णबंधगद्धाए च बद्धं होदि तो वि दीवसिहादव्वादो पंचिंदियजहण्णजोगेण एइंदियउकस्सजोगादो असंखेज्जगुणेण बद्धादो' असंखज्जगुणं । कुदो ? दीवसिहादव्वम्मि व भवस्स तदियसमयद्विदसुहुमेइंदियअपज्जत्तयम्मि असंखजगुणहाणिमेत्तणिसेगाणं गलणाभावादो दीवसिहा. दव्वेण जहण्णखेत्तट्ठियदव्वे भागे हिदे अंगुलस्स असंखेज्जदिभागुवलंभादो वा ।
तस्स कालदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ १५३ ॥ सुगमं ।
णियमा अजहण्णा असंखेजगुणभहिया ॥ १५४ ॥ जघन्य द्रव्यसे सम्बन्ध रखनेवाला है। इस कारण आयुके जघन्य भावकी अपेक्षा दीपशिखा रूप जघन्य द्रव्यका भाव अनन्तगुणा है, यह सिद्ध है।
जिस जीवके आयुकी वेदना क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके द्रव्यकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ १५१ ॥
यह सूत्र सुगम है। . वह नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक होती है ॥ १५२ ॥
वह इस प्रकारसे-यद्यपि जघन्य क्षेत्रमें स्थित आयु कर्मका द्रव्य जघन्य योग और जघन्य बन्धक कालके द्वारा बांधा गया है तो भी वह एकेन्द्रिय जीवके उत्कृष्ट योगसे असंख्यातगुणे ऐसे पंचेन्द्रिय जीवके जघन्य योगके द्वारा बाँधे गये दीपशिखाद्रव्यसे असंख्यातगुणा है, क्योंकि, दीपशिखाद्रव्यके समान भवके तृतीय समयमें स्थित सूक्ष्म एकेन्द्रिय अपर्याप्तके [ द्रव्यमेंसे ] असंख्यात गुणहानि प्रमाण निषेकोंके गलनेका अभाव है, अथवा दीपशिखा द्रव्यका जघन्य क्षेत्रस्थित द्रव्यमें भाग देनेपर अंगुलका असंख्यातवां भाग पाया जाता है।
उसके कालकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥१५३।। यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक होती है ॥ १५४ ॥
१ अ-श्रा-काप्रतिषु 'दव्व' इति पाठः। २ अ-श्रा-काप्रतिषु 'बंध' इति पाठः। ३ प्रतिषु 'बंधादो' इति पाठः । ४ श्राप्रती 'क्वम्मि व भयस्स', ताप्रतौ 'दव्वमिव भावस्स' इति पाठः ।
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