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४, २, १३, २९.] वेयणसण्णियासविहाणाणियोगहरं
[ ३८६ उक्कस्सा' । दव्ववेयणा पुण णिबियप्पअसंखेजगुणहीणा । णवरि सम्मत्त-संजमासंजमकंदयाणि केत्तिएण वि ऊणा त्ति वत्तव्वं, अण्णहा मिच्छत्तगमणाणुववत्तीदो । दव्ववेयणा अणंतगुणहीणा किण्ण जायदे ? ण, अणंतगुणहीणजोगाभावादो।
तस्स खेत्तदो किमुक्कस्सा अणुकस्सा ॥२७॥ सुगमं । उक्कस्सा वा अणक्कस्सा वा ॥२८॥
उक्कस्सखेत्तसामिणा महामच्छेण उक्कस्सद्विदीए पबद्धाए कालेण सह खेत्तं पि उक्कस्सं होदि । उक्कस्सखेत्तमकाण उक्कस्सहिदीए पबद्धाए खेत्तवेयणा अणुक्कस्सा होदि ।
उकस्सादो अणकस्सा चउहाणपदिदा॥ २६ ॥
तं जहा-महामच्छेण एगपदेसूणउक्कस्सोगाहणाए सत्तमपुढविं पडि मुक्कमारणंतिएण उक्कस्सहिदीए पबद्धाए असंखेजभागहीणं खेत्तं । एवं मुहपदेसम्मि दो-तिण्णिपदेसप्पहुडि जाव उक्कस्सेण संखजपदरंगुलमेत्तपदेसा झोणा ति। तदो एगागासपदेसूणअट्ठमरणं मारणंतियं मेल्लाविय उक्कस्स हिदि बंधाविय णेयव्वं जाव विकल्परहित असंख्यातगुणी हीन होती है। विशेष इतना है कि सम्यक्त्वकाण्डक और संयमा. संयमकाण्डक कुछ कम होते हैं, ऐसा कहना चाहिए क्योंकि, इसके विना मिथ्यात्वको प्राप्त होना सम्भव नहीं है।
शंका-द्रव्यवेदना अनन्तगुणी हीन क्यों नहीं होती है ? समाधान- नहीं, क्योंकि, अनन्तगुणे हीन योगका अभाव है। उसके क्षेत्रकी अपेक्षा उक्त वेदना क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥२७॥ यह सूत्र सुगम है। वह उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी ॥ २८ ॥
उत्कृष्ट क्षेत्रके स्वामी महामत्स्यके द्वारा उत्कृष्ट स्थितिके बांधे जानेपर कालके साथ क्षेत्र भी उत्कृष्ट है । उत्कृष्ट क्षेत्रको न करके उत्कृष्ट स्थितिके बांधे जानेपर क्षेत्रवेदना अनुत्कृष्ट होती है।
वह उत्कृष्ट की अपेक्षा अनुत्कृष्ट वेदना चार स्थानोंमें पतित है ॥२९॥
वह इस प्रकारसे-एक प्रदेशसे हीन उत्कृष्ट अवगाहनाके साथ सातवीं पृथिवीके प्रति मारणान्तिक समुद्घातको करनेवाले महामत्स्यके द्वारा उस्कृष्ट स्थितिके बांधे जानेपर उसका क्षेत्र असंख्यातवें भागसे हीन होता है। इस प्रकार मुखस्थानमें दो तीन प्रदेशोंसे लेकर उत्कृष्टरूपसे संख्यात प्रतरांगुल प्रदेशों के हीन होने तक [ उसका क्षेत्र असंख्यातवें भागसे होन रहता है, तत्पश्चात् एक आकाश प्रदेशसे हीन साढ़े सात राजु मात्र मारणान्तिक समुद्घातको कराकर व
१ मप्रतिपाठोऽयम् । अ-श्रा-काप्रतिषु 'उक्कस्स-', ताप्रतौ 'उक्कस्स-' इति पाठः । २ अ-श्रा-का-ताप्रतिषु सामिणो' इति पाठः । ३ अ-श्राप्रत्योः 'हीणक्खेत्तं', काप्रती 'होणखेत्तं' इति पाठः ।
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