________________
{४, २, १३, ५५] वेयणसण्णियासविहाणाणियोगदारं
[ ३९९ लोगपूरणगदकेवलिम्हि अणुक्कस्सा किण्ण जायदे ? ण, चरिमसमयसुहुमापरा. इयाणं विसरिसपरिणामाभावादो ।णच विसेसपञ्चयमेदो वि' अस्थि, सम्वेसु एगुक्कस्स. पचयस्सेव संभवुवलंभादो। ण च जोगमेदेण अणुभागस्स णाणत्तं जुज्जदे, जोगवड्डि-हाणीहितो अणुभागवड्डि-हाणीणमभावादो। सुहुमसापराइयचरिमसमए पबद्धउक्कस्साणुभागट्टिदी जेण बारसमुहुत्तमेत्ता तेण बारसहं मुहुत्ताणमन्भंतरे केवलणाणमुप्पाइय सव्वलोगमाऊरिय द्विदाणं भावो उक्कस्सो होदि । बहुएण कालेण कयलोगपूरणाणमुकस्सो ण होदि, बारसेहि मुहुत्तेहि उक्कस्साणुभागपरमाणूणं णिस्सेसक्खयदंसणादो। तम्हा लोगपूरणे भाववेयणा उक्कस्सा अणुक्कस्सा वा होदि ति वत्तव्यमिदि ? एत्थ परिहारो उच्चदे । तं जहा--लोगपूरणे भाववेयणा उक्कस्सा चेव, अण्णहा सुत्तस्स अप्प. माणत्तप्पसंगादो । ण च सुत्तमप्पमाणं होदि, तब्भावे तस्स सुत्तत्तविरोहादो । उत्तं च
अर्थस्य सुचनात्सम्यक्सूतेर्वार्थस्य सूरिणा।
सूत्रमुक्तमनल्पार्थ सूत्रकारेण तत्त्वतः ॥३॥) ण च जुत्तिविरुद्धत्तादो ण सुत्तमेदमिदि वोत्तुं सक्किज्जेंदें, सुत्तविरुद्धाए जुत्तिशंका-लोकपूरण अवस्थाको प्राप्त हुए केवलीमें वह अनुत्कृष्ट क्यों नहीं होती है ? समाधान-नहीं, क्योंकि, अन्तिम समयवर्ती सूक्ष्मसाम्परायिक जीवोंके विसदृश परिणामों
है। इसके अतिरिक्त विशेष प्रत्ययभेद भी यहाँ नहीं है। क्योंकि. उक्त सभी जीवोंमें एक उत्कृष्ट प्रत्ययकी ही सम्भावना पायी जाती है । यदि कहा जाय कि योगके भेदसे अनुभागका भी भेद होना चाहिये, तो यह भी उचित नहीं है, क्योंकि, योगकी वृद्धि व हानिसे अनुभागकी वृद्धि व हानि सम्भव नहीं है।
शंका-चूंकि सूक्ष्मसाम्परायिक गुणस्थानके अन्तिम समयमें बाँधी गई उत्कृष्ट-अनुभागस्थिति बारह मुहूर्त प्रमाण होती है, अतएव बारह मुहूर्तों के भीतर केवलज्ञानको उत्पन्नकर सब लोकको पूर्ण करके स्थित जीवोंका भाव उत्कृष्ट होता है। परन्तु बहुत कालमें लोकपूरण समुद्घातको करनेवाले जीवोंका भाव उत्कृष्ट नहीं होता है, क्योंकि, बारह मुहूर्तों में उत्कृष्ट अनुभागके परमाणुओंका निःशेष क्षय देखा जाता है। इसीलिये लोकपूरण अवस्थामें भाववेदना उस्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी ऐसा कहना चाहिये ?
समाधान-यहाँ उक्त शंकाका परिहार कहते हैं। वह इस प्रकार है-लोकपरण अवस्थामें भाववेदना उत्कृष्ट ही होती है, क्योंकि, ऐसा माननेके विना सूत्रके अप्रमाण ठहरनेका प्रसंग आता है। परन्तु सूत्र अप्रमाण होता नहीं है, क्योंकि, अप्रमाण होनेपर उसके सूत्र होनेका विरोध है। कहा भी है
भली भाँत अर्थका सूचक होनेसे अथवा अर्थका जनक होनेसे बहुत अर्थका बोधक वाक्य सूत्रकार आचार्य के द्वारा यथार्थमें सूत्र कहा गया है ॥३॥
यदि कहा जाय कि युक्तिविरुद्ध होनेसे यह सूत्र ही नहीं है, तो ऐसा कहना शक्य नहीं है,
१ श्रा-का-ताप्रतिषु 'वि' इत्येतत् पदं नोपलभ्यते । २ श्राप्रतौ 'बारसमुहुत्तेण मेत्तेण बारसण्हं', बारमुहुत्तमेत्ता तेण बारसण्हं इति पाठः । ३ प्रतिषु 'सुत्तरसविरेहादो' इति पाठः । ४ ताप्रती 'सूत्रैर्वार्थस्य इति पाठः। ५ उद्धतमेतज यधवलायाम् ( १, पृ० १७१०)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org