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४, २, १३, १३८ ] वेयणसण्णियासविहाणाणियोगद्दारं
जदि खविदकम्मंसियलक्खणेणागंतूण अजोगिचरिमसमए जहण्णकालेण परिणदो होज्ज तो कालेण सह दव्वं पि जहण्णत्तमल्लियइ । अध खविद-गुणिद घोलमाणा वा गुणिदकम्मंसिया वा अजोगिचरिमसमए जहण्ण कालेण जदि परिणमंति तो पंचट्ठाणपदिदा अजहण्णा दव्ववेयणा होज्ज । जहा णाणावरणीयजहण्णकाले णिरुद्धे तद्दव्वस्स पंचढाणपरूवणा कदा तधा एत्थ वि कायव्या, विसेसाभावादो।
तस्स खेत्तदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥१३५ ॥ सुगमं । णियमा अजहण्णा असंखेजगुणब्भहिया ॥ १३६ ॥
कुदो ? अंगुलस्स असंखेज्जदिमागं सुहुमणिगोदजहण्णोगाहणं पेक्खिदूण अजोगिजहण्णोगाहणाए अंगुलस्स संखेज्जदिमागमेत्ताए असंखेज्जगुणतुवलंभादो ।
तस्स भावदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ १३७ ॥ सुगमं ।
जहण्णा वा अजहण्णा वा, जहण्णादो अजहण्णा अणंतगुणब्भाहया ॥ १३८॥
असादोदएण खवगसेडिं चढिय अजोगिचरिमसमए वट्टमाणस्स भाववेयणा
यदि क्षपितकर्माशिक स्वरूपसे आकरके जीव अयोगकेवलीके अन्तिम समयमें जघन्य कालसे परिणत होता है तो कालके साथ द्रव्य भी जघन्यताको प्राप्त होता है। परन्तु यदि क्षपित-गुणित-घोलमान अथवा गुणितकर्माशिक जीव अयोगकेवलीके अन्तिम समयमें जघन्य कालसे परिणत होते हैं तो वह द्रव्यवेदना पाँच स्थानों में पतित होकर अजघन्य होती है। जिस प्रकार ज्ञानावरणीयके जघन्य कालकी विवक्षामें उसके द्रव्यके सम्बन्धमें पाँच स्थानोंकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकारसे यहाँ भी करनी चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है।
उसके क्षेत्रकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ १३५ ।। यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक होती है ॥ १३६ ।।
कारण यह कि सूक्ष्म निगोद जीवकी अंगुलके असंख्यातवें भागमात्र जघन्य अवगाहनाकी अपेक्षा अंगुलके संख्यातवें भाग मात्र अयोगकेवलीकी जघन्य अवगाहना असंख्यातगुणी पायी जाती है।
उसके भावकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ १३७ ॥ यह सूत्र सुगम है।
वह जघन्य भी होती है और अजघन्य भी। जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य अनन्तगुणी अधिक होती है ॥ १३८ ॥
असातावेदनीयके उदयके साथ क्षपकश्रेणि पर चढ़कर अयोगकेवलीके अन्तिम समयमें छ. १२-५४
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