Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४२६ ] छक्खंडागमे वेयणाखंडं
[४, २, १३, १३६. जहण्णा, तस्स दुचरिमसमए विणट्ठसादावेदणीयत्तादो। अध सादोदएण जदि खवगसेडिमारुहिय अजोगिचरिमसमए द्विदो होदि तो भाववेयणा अजहण्णा। कुदो ? असादावेदणीयभावस्सेव सादावेदणीयभावस्स सुहत्तणेण घादाभावादो। अजहण्णा होता वि जहण्णादो अणंतगुणा, संसारावत्थाए सादाणुभागादो अणंतगुणहीणअसादाणुभागे खवगसेडीए बहूहि अणुभागखंडयघादेहि अणंतगुणहाणीए' घादिदे संते अजोगिचरिमसमए जो सेसो भावो सो जहण्णो जादो तेण तत्तो एसो सादाणुभागो अणंतगुणो, घादाभावेण - उक्कस्सत्तादो।
जस्स वेयणीयवेयणा भावदो जहण्णा तस्स दव्वदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ १३६ ॥
सुगमं ।
जहण्णा वा अजहण्णा वा, जहण्णादो अजहण्णा पंचट्ठाणपदिदा ॥ १४०॥
जदि सुद्धणयविसयखविदकम्मसियलक्खणेणागंतूण चरिमसमयअजोगी जादो तो भावेण सह दव्वं पि जहण्णं चेव, विसरिसत्तस्स कारणामावादो। अह असुद्धणयविसयखविदकम्मंसियो खविदघोलमाणो गुणिदघोलमाणो गुणिदकम्मंसियो वा खवगवर्तमान जीवके भाववेदना जघन्य होती है, क्योंकि, उसके द्विचरम समयमें साता वेदनीयका उदय नष्ट हो चुका है। परन्तु यदि साता वेदनीयके उदयके साथ क्षपकश्रेणिपर चढ़कर अयोगकेवलीके अन्तिम समय में स्थित होता है तो भाव वेदना अजघन्य होती है। क्योंकि, असाता वेदनीयके भावके समान शुभ होनेसे साता वेदनीयके भावका घात सम्भव नहीं है। अजघन्य होकर भी वह जघन्यकी अपेक्षा अनन्तगुणो होती है, क्योंकि, संसारावस्थामें साता वेदनीयके अनुभागकी अपेक्षा अनन्तगुणे हीन असातावेदनीयके अनुभागका क्षपकौणिमें बहुतसे अनुभाग काण्डकघातोंसे अनन्त गुणहानि द्वारा घात किये जानेपर अयोगकेवलीके अन्तिम समयमें जो भाव शेष रहा हैवह जघन्य हो चुका है। इसलिये उससे यह साताका अनुभाग अनन्तगुणा है, क्योंकि, वह घात रहित होनेसे उत्कृष्ट है।
जिस जीवके वेदनीयकी वेदना भावकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके द्रव्यकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥१३९ ॥
यह सूत्र सुगम है।
वह जघन्य भी होती है और अजघन्य भी। जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य पाँच स्थानों में पतित होती है ॥ १४० ॥
__ यदि शुद्ध नयके विषयभूत क्षपितकर्मा शिक स्वरूपसे आकरके अन्तिम समयवर्ती अयोगी हुआ है तो भावके साथ द्रव्य भी जघन्य ही होता है, क्योंकि, उसके विसदृश होनेका कोई कारण नहीं है। परन्तु अशुद्ध नयका विषयभूत क्षपितकर्माशिक, क्षपितघोलमान, गुणित
१ ताप्रती 'अणंतगुणहाणीहि' इति पाठः।
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