________________
४, २, १३, १२९.] वेयणसण्णियासविहाणाणियोगदारं
[४२३ जदि असादोदयेण णिव्वुओ होदि तो दव्वेण सह भावो वि जहण्णी होदि, अजोगिदुचरिमसमए गलिदसादावेदणीयत्तादो खवगपरिणामेहि घादिय अणंतिमभागे' दृविदअसादोणुमागत्तादो च । अध सादोदएण जइ सिज्झइ तो अणंतगुणभहिया, अजोगिदुचरिमसमए उदयाभावेण विण?असादत्तादो सुहुमसांपराइयचरिमसमए बद्धसादुक्कस्साणुभागस्स पादाभावादो असादुक्कस्साणुभागादो सादुक्कस्साणुभागस्स' अणंतगुणत्तवलंभादो।
जस्स वेयणीयवेयणा खेत्तदो जहण्णा तस्स दव्वदो किं जहण्णा अजहपणा ॥ १२७॥
सुगम । णियमा अजहण्णा' चउहाणपदिदा ॥ १२८ ॥
चउहाणपदिदात्ति वुत्ते असंखेज्जभागब्भहिय-संखेज्जभागबमहिय-संखेज्जगुणमाहियअसंखज्जगुणमहिया त्ति घेत्तव्वं । एदेसिं चदुट्ठाणाणं परूवणा जहा णाणावरणीयजहण्णखेत्ते णिरुद्ध तद्दव्वस्स कदा तधा कायव्वा ।
तस्स कालदो किं जहण्णा [ अजहण्णा ] ॥ १२६ ॥
यदि जीव असाता वेदनीयके उदयके साथ मुक्त होता है तो द्रव्यके साथ भाव भी जघन्य होता है, क्योंकि, अयोगकेवलीके द्विचरम समयमें साता वेदनीय गल चुका है तथा असाताके अनुभागको क्षपक परिणामोंसे घात करके अनन्तवें भागमें स्थापित किया जाचुका है, परन्तु यदि साता वेदनीयके उदयके साथ सिद्ध होता है तो वह अनन्तगुणी अधिक होती है, क्योंकि, अयोगकेवलीके द्विचरम समयमें उदय न रहनेके कारण असाता वेदनीयके नष्ट हो जानेसे तथा सूक्ष्मसाम्परायके अन्तिम समयमें बांधे गये साता वेदनीयके अनुभागका घात न हो सकनेसे असाता वेदनीयके उत्कृष्ट अनुभागकी अपेक्षा साताका उत्कृष्ट अनुभाग अनन्तगुणा पाया जाता है।
जिसके वेदनीयकी वेदना क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके द्रव्यकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥१७॥
यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य चार स्थानोंमें पतित होती है ।। १२८. ।।
'चार स्थानों में पतित होती है' ऐसा कहनेपर असंख्यात भाग अधिक, संख्यातभाग अधिक, संख्यातगुण अधिक और असंख्यातगुण अधिक, ऐसा ग्रहण करना चाहिये। ज्ञानावरणीयके जघन्य क्षेत्रको विवक्षितकर जैसे उसके द्रव्य सम्बन्धी इन चार स्थानोंकी प्ररूपणा की गई है वैसे ही यहाँ उनकी प्ररूपणा करना चाहिये।
उसके कालकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ १२६ ।।
१ का तापत्योः 'अणंतिमभावो' इति पाठः । २ का-ताप्रत्योः 'भागादो वि सादुक्कस्साणु-' इति पाठः । ३ ताप्रती 'जहण्णा' इति पाठः।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org