Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४, २, १३, १२१.] वेयणसण्णियासविहाणाणियोगद्दारं
[४२१ तस्स खेत्तदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ ११६॥ सुगम । णियमा अजहण्णा असंखेजगुणब्भहिया ॥ ११७॥
कुदो? खीणकसायचरिमसमयजहण्णाणुभागसहचारिजण्णखेत्तस्स वि सुहुमणिगोदापज्जत्तजहण्णखेत्तमंगुलस्स असंखेज्जदिमागंपेक्खिण असंखेज्जगुणत्तवलंभादो।
तस्स कालदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ ११८॥ . सुगमं । जहण्णा ॥ ११ ॥
कुदो ? खीणकसायचरिमसमयम्मि जहण्णमावेण विसिट्टकम्मपरमाणूणं जहण्णकालं मोत्तूण कालंतराभावादो ।
एवं दंसणावरणीय-मोहणीय-अंतराइयाणं ॥ १२०॥
जहा णाणावरणीयस्स दव्वादीणं सण्णियासो कदो तहा एदेसि पि तिण्णं धादिकम्मोणं कायव्वो।
जस्स वेयणीयवेयणा दव्वदो जहण्णा तस्स खेत्तदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥ १२१ ॥
उसके क्षेत्रकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥ ११६॥ यह सूत्र सुगम है। वह नियमसे अजघन्य असंख्यातगुणी अधिक होती है ॥ ११७॥
कारण यह कि क्षीणकषायके अन्तिम समय सम्बन्धी जघन्य अनुभागके साथ रहने वाला जघन्य क्षेत्र भी सूक्ष्म निगोद अपर्याप्तकके अंगुल के असंख्यातवें भाग प्रमाण जघन्य क्षेत्रको अपेक्षा असंख्यातगुणा पाया जाता है।
उसके कालकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥११८॥ यह सूत्र सुगम है। वह उसके जघन्य होती है ॥ ११ ॥
कारण कि क्षीणकषायके अन्तिम समयमें जघन्य भावके साथ विशिष्ट कर्मपरमाणुओं के जघन्य कालको छोड़कर अन्य कालका अभाव है।
इसी प्रकार दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय कर्मोंके जघन्य वेदनासंनिकर्षकी प्ररूपणा करनी चाहिये ॥ १२० ॥
जिस प्रकार ज्ञानावरणीयके द्रव्यादिकोंका संनिकर्ष किया गया है उसी प्रकार इन तीनों घातिया कर्मों के संनिकर्षको भी करना चाहिये।
__ जिसके वेदनीय कर्मको वेदना द्रव्यकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके वह क्या क्षेत्रकी अपेक्षा जघन्य होती है या अजघन्य । १२१ ॥
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