Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४२०] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, १३, ११२ कुदो ? जहण्णकालसहचारिअद्भुहरयणि उव्विद्धखीणकसायजहण्णक्खेत्तस्स वि अंगुलस्स संखेज्जदिमागस अंगुलस्स असंखेज्जदिमागमेत्तसुहुमणिगोदजहण्णक्खेत्तं पेक्खिदण असंखेज्जगुणत्तुवलंभादो।।
तस्स भावदो कि जहण्णा अजहण्णा ॥ ११२॥ सुगमं । जहण्णा ॥११३॥
कुदो ? खीणकसायचरिमसमए जहण्णकालोवलक्खिदकम्मक्खंधस्स जहण्णाणुमागं मोत्तूण अण्णाणुभागवियप्पाभावादो।
जस्स णाणावरणीयवेयणा भावदो जहण्णा तस्स दव्वदो किं जहण्णा अजहण्णा ॥११४॥
सुगम ।
जहण्णा वा अजहण्णा वा, जहण्णादो अजहण्णा पंचट्ठाणपदिदा ॥ ११५ ॥
एदस्स सुत्तस्स अत्थे भण्णमाणे जहा जहण्णकाले णिरुद्ध दव्वस्स पंचट्ठाणपदिदत्तं परूविदं तहा एत्थ वि परूवेदव्वं, विसेसाभावादो ।
कारण कि जघन्य कालके साथ रहनेवाला अंगुलके संख्यातवें भाग मात्र क्षीणकषायका साढ़े तीनरनि प्रमाण ऊंचा जघन्य क्षेत्र भी अंगुलके असंख्यातवें भाग मात्र सूक्ष्म निगोद जीवके जघन्य क्षेत्रकी अपेक्षा असंख्यातगुणा पाया जाता है।
उसके भावकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥११२ ॥ यह सूत्र सुगम है। उसके उक्त वेदना जघन्य होती है ॥ ११३ ॥
कारण कि क्षीणकषायके अन्तिम समयमें जघन्य कालसे उपलक्षित कर्मस्कन्धके जघन्य अनुभागको छोड़कर अन्य अनुभागविकल्पोंका अभाव है।
जिसके ज्ञानावरणीयकी वेदना भावकी अपेक्षा जघन्य होती है उसके द्रव्यकी अपेक्षा वह क्या जघन्य होती है या अजघन्य ॥११४॥
यह सूत्र सुगम है।
वह उसके जघन्य भी होती है और अजघन्य भी, जघन्यकी अपेक्षा अजघन्य पाँच स्थानोंमें पतित है ॥ ११५ ॥
इस सूत्रके अर्थका कथन करते समय जिस प्रकारसे जघन्य कालको विवक्षित करके द्रव्यके पाँच स्थानोंमें पतित होने की प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार यहाँ भी उसकी प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है।
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