Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
४, २, १३, ९५.] वेयणसण्णियासविहाणाणियोगद्दारं
[४१३ होदण ताव गच्छदि नाव उक्कस्साउअमुक्कस्ससंखेज्जेण खडिदण तत्थ एगखडमेत्तं मणुस्सेसु देवेसु च ण गलिदं ति । तम्हि संपुण्णे गलिदे संखेज्जभागहाणी होदि । तत्तो पहुडि उवरि संखेज्जभागहाणी होदूण गच्छदि जावुक्कस्सद्विदीए अद्धं गलिदं ति । तत्तो पहुडि उवरि संखेज्जगुणहाणी होदण गच्छदि जावुक्कस्सहिदि जहण्णपरित्तासंखे. ज्जेण खडिय तत्थ एगख डमेत्तं द्विदं ति । तत्तो प्पहुडि असंखेज्जगुणहाणी होण गच्छदि जाव बद्धाउअदेवचरिमसमओ त्ति । सव्वत्थ भावो उक्कस्सो चेव, सरिसधणियपरमाणुहाणीए भावहाणीए अभावादो। अंतोमुहुत्तचरिमसमयस्स कधमु
कस्साणुभागसंभवो ? ण, तस्स अणुभागखंडयघादाभावादो। तम्हा चउट्ठाणपदिदा कालवेयणा ति सहहेयव्वं । चउहाणपदिदा ति ण वत्तव्वं, असंखेज्जभागहीणा वा संखेज्जभागहीणा वा संखेज्जगुणहीणा वा असंखेज्जगुणहीणा वा इच्चेदेणेव सिद्धत्तादो ? ण एस दोसो, दवट्ठियणयाणुग्गहट्टं तदुत्तीदो। ण च एक्कस्सेव' वयणस्स जिणा अणुग्गहं कुणंति, समाणत्ताभावेण जिणत्तस्सेव' अभावप्पसंगादो। एवमुक्कस्सओ सत्थाणवेयणासणियासो समत्तो।।
जो सो थप्पो जहण्णओ सत्थाणवेयणसण्णियासो सो चउब्विहोदबदो खेत्तदो कालदो भावदो चेदि ॥ ५ ॥ प्रकार असंख्यातभागहीन होकर तब तक जाती है जब तक कि उत्कृष्ट आयुको उत्कृष्ट संख्यातसे खण्डित कर उसमें एक खण्ड प्रमाण मनुष्यों और देवोंमें नहीं गलित हो जाता है। उसके सम्पूर्ण गल जानेपर संख्यातभागहानि होती है । वहाँ से लेकर आगे उत्कृष्ट स्थितिका अर्ध भाग गलित होने तक संख्यातभागहानि होकर जाती है। उससे लेकर आगे उत्कृष्ट स्थितिको जघन्य परीतासंख्यातसे खण्डित कर उनमें एक खण्डके स्थित होने तक संख्यातगुणहानि होकर जाती है। उससे आगे बद्धायुष्क देवके अन्तिम समय तक असंख्यातगुणहानि होकर जाती है। भाव सर्वत्र उत्कृष्ट ही रहता है, क्योंकि समान धनवाले परमाणुओंकी हानिसे भावहानिका अभाव है
शंका-अन्तर्मुहूर्तके अन्तिम समयमें उत्कृष्ट अनुभागकी सम्भावना कैसे है ?
समाधान-नहीं, क्योंकि, उसके अनुभागकाण्डकघातका अभाव है। इसलिये कालवेदना उक्त चार स्थानोंमें पतित है, ऐसा श्रद्धान करना चाहिये।
शंका-वह 'चार स्थानोंमें पुतित है। यह नहीं कहना चाहिये, क्योंकि "असंख्यातभागहीन, संख्यातभागहीन, संख्यातगुणहान और असंख्यातगुणहान इस सूत्राशस ही वह सिद्ध है?
समाधान-यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, द्रव्याथिक नयके अनुग्रहार्थ 'वह चार स्थानोंमें पतित है। यह कहा गया है। जिन भगवान् किसी एक ही वचनका अनुग्रह नहीं करते हैं, क्योंकि, ऐसा मानने पर[ दोनों वचनोंमें ] समानताका अभाव होनेसे जिनत्वके ही अभावका प्रसंग आता है।
इस प्रकार उत्कृष्ट स्वस्थान वेदना संनिकर्ष समाप्त हुआ।
जिस जघन्य स्वस्थान वेदनासंनिकर्षको स्थगित किया था वह द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावके भेदसे चार प्रकारका है ॥ ६५ ॥
१ श्राप्रती 'एक्किस्सेव' इति पाठः । २ अप्रतौ 'सगाणत्ताभावादोण जिणत्तस्सेव'. अाप्रती 'समाणत्ताभावोण जिणा तस्सेव', काप्रतौ 'समाणत्ताभावा ण जिणा तरसेव' इति पाठः।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org