Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४१६] छक्खडागमे वेयणाखंड
[४, २, १३, १०३. सुगमं ।
णियमा अजहण्णा चउहाणपदिदा असंखेजभागभहिया, वा संखेज्जभागभहिया वा संखेजगुणब्भहिया वा असंखेजगुण भहिया वा ॥ १०३ ॥
तं जहा–खविदकम्मंसियलक्खणेण आगंतूण विपरीयं गंतूण सुहुमणिगोदअपज्जत्तएसु जहण्णजोगेसु उप्पज्जिय तिसमयतब्भवत्थस्स जहणिया खेत्तवेयणा जादा। तत्थ जं दव्वं तं पुण खीणकसायचरिमसमयओघजहण्णदव्वं पेक्खिदण असंखेज्जभागमहियं होदि । को पडिभागो ? पलिदोवमस्स असंखेज्जदिभागो । किमट्ठमसंखेज्जदिभागब्भहियं १ खविदकम्मंसियकालभंतरे खविज्जमाणदव्वस्स असंखेज्जेसु भागेसु गढेसु असंखेज्जदिमागमेत्तदव्वस्स अविणासुवलंभादो । पुणो एदस्स दव्वस्सुवरि एगेगपरमाणु वडिदे वि दधस्स असंखेज्जभागवड्डी चेव । एवमसंखेज्जमागब्भहियसरूवेण णेयव्वं जाव जहण्णदव्यमुक्कस्ससंखेज्जेण खंडिदे तत्थ एगखंडमेत्तं जहण्णदव्वस्सुवरि वविदं ति । तदो संखेज्जभागवड्डीए आदी होदि । एत्तो प्पहुडि परमाणुत्तरकमेण संखेज्जभाग
यह सूत्र सुगम है।
वह नियमसे अजघन्य असंख्यातभाग अधिक, संख्यातभाग अधिक, संख्यातगण अधिक और असंख्यातगण अधिक इन चार स्थानोंमें पतित होती है ॥१०३।
वह इस प्रकारसे-क्षपितकांशिक स्वरूपसे आकरके विपरीत स्वरूपको प्राप्त हो जघन्य योगवाले सूक्ष्म निगोद लब्ध्यपर्याप्तक जीवोंमें उत्पन्न होकर तद्भवस्थ होनेके तृतीय समयमें वर्तमान जीवके क्षेत्रवेदना जघन्य होती है । परन्तु उसके जो द्रव्य होता है वह क्षीणकषायके अन्तिम समय सम्बधी ओघ जघन्य द्रव्यकी अपेक्षा असंख्यातवें भागसे अधिक होता है। उसका प्रतिभाग पल्योपमका असंख्यावाँ भाग है।
शंका-असंख्यातवें भागसे अधिक किसलिये है ?
समाधान-इसका कारण यह है कि क्षपितकर्माशिककालके भीतर क्षयको प्राप्त कराये जानेवाले द्रव्यके असंख्यात बहुभागोंके नष्ट हो जानेपर असंख्यातवें भाग मात्र द्रव्यका अविनाश पाया जाता है।
फिर इस द्रव्यके ऊपर एक एक परमाणुकी वृद्धिके होने पर भी द्रव्यके असंख्यातभागवृद्धि ही होती है। इस प्रकार असंख्यातवें भाग अधिक स्वरूपसे जघन्य द्रव्यको उत्कृष्ट संख्यातसे खण्डित करनेपर उसमेंसे एक खण्ड मात्रकी जघन्य द्रव्यके ऊपर वृद्धि हो जाने तक ले जाना चाहिये। पश्चात् संख्यातभागवृद्धिका प्रारम्भ होता है । यहाँसे लेकर परमाणु अधिक क्रमसे संख्यातभागवृद्धि तब
- १ अ-श्रा-काप्रतिषु 'भागवाहिया' इति पाठः, प्रतिष्विमास्वग्रे सर्वत्र 'अब्भहिय' इत्येतस्य स्थाने प्रायः 'अवहिय' एव पाठः उपलभ्यते ।
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