Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४, २, १३, ४२.] वेयणसण्णियासविहाणाणियोगहारं
[३६५ अण्णो असंखेज्जभागहाणिवियप्पो होदि । दुसमउत्तरद्विदिखंडए घादिदे अण्णो असंखेज्जभागहाणिवियप्पो होदि । एवं पेयव्वं जाव जहण्णपरित्तासंखेज्जेण उक्कस्सहिदि खंडेदूण तत्थ एगखंडमेत्तो हिदिखंडओ पदिदो त्ति । तो वि असंखेज्जभागहाणी चेव । एवं गंतूण उक्कस्ससंखेज्जेण उक्कस्सहिदि खंडिय तत्थ एगखंडमेत्ते द्विदिखंडए ताए चेव' उक्कीरणद्धाए धादिदे संखज्जभागहाणी होदि । अणुभागो पुणो उक्कस्सो चेव, तस्स घादाभावादो । एत्तो प्पहुडि समउत्तरकमेण द्विदिखंडओ वड्डाविय घादेदव्यो जाव संखेज्जभागहाणीए चरिमवियप्पो त्ति । पुणो तेणेव उक्कीरणकालेण उक्कस्सहिदीए अद्धे घादिदे संखज्जगुणहाणीए आदी होदि, दुगुणहीणत्तादो । तत्तो प्पहुडि समउत्तरादिकमेण हिदिखंडे घादिज्जमाणे संखेज्जगुणहाणी चेव होदि । एवं णेयव्वं जाव उक्कस्साणुभागाविरोधिअंतोकोडाकोडि त्ति ।
एवं दंसणावरणीय-मोहणीय-अंतराइयाणं ॥ ४२ ॥
जहा णाणावरणीयस्स दव्व खेत्त-काल-भावेसु एगणिरुंभणं कादूण सेसपरूवणा' कदा तहा एदेसि पि तिण्हं धादिकम्माणं परूवणा कायव्वा, दव्व-खेत्त-काल-भावसामितेण विसेसाभावादो। घात होनेपर असंख्यातभागहनिका अन्य विकल्प होता है। दो समय अधिक स्थितिकाण्डकका . घात होनेपर असंख्यातभागहानिका अन्य विकल्प होता है। इस प्रकार जघन्य परीतासंख्यातसे उत्कृष्ट स्थितिको खण्डित कर उसमें एक खण्ड मात्र स्थितिकाण्डकके पतित होने तक ले जाना चाहिये । तो भी असंख्यात भागहानि ही रहती है । इस प्रकार जाकर उत्कृष्ट संख्यातसे उत्कृष्ट स्थितिको खण्डितकर उसमें एक खण्ड मात्र स्थितिकाण्डकका उसी उत्कीरण कालके द्वारा घात होनेपर संख्यातभागहानि होती है । परन्तु अनुभाग उत्कृष्ट ही रहता है, क्योंकि, उसका हुआ है । यहाँसे लेकर एक समय अधिकके क्रमसे स्थितिकाण्डकको बढ़ाकर संख्यातभागहानिके मन्तिम विकल्प के प्राप्त होने तक उसका घात करना चाहिये । फिर उसी उत्कीरणकालसे उत्कृष्ट स्थितिके अर्धभागका घात होनेपर संख्यागुणहानि प्रारम्भ होती है, क्योंकि, उक्त स्थितिमें दुगुणी हानि हो चुकती है। उससे लेकर एक समय अधिक आदिके क्रमसे स्थितिकाण्डकका घात होनेपर संख्यात-गुणहानि ही होती है। इस प्रकारसे उत्कष्ट अनुभागके अविरोधी अन्तःकोड़ाकोड़ि तक जाना चाहिये।
इसी प्रकार दर्शनावरणीय, मोहनीय और अन्तराय कर्मोंके विषयमें प्ररूपणा करनी चाहिये ॥ ४२ ॥
जिस प्रकार ज्ञानावरणीयके द्रव्य, क्षेत्र, काल और भावमेंसे किसी एकको विवक्षित करके शेषोंकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार इन तीन घासिया कर्मोकी भी प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि, द्रव्य, क्षेत्र, काल व भावके स्वामित्वसे उसमें कोई विशेषता नहीं है।
१ अापतौ ' मेते डिदिखग्मेत्ताए चेव' इति पाठः । २ अ-बा-काप्रतिषु 'परूवणं' इति पाठः।
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