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[४, २, १३, ३६.
छक्खंडागमे वेयणाखंड तस्स खेत्तदो किमुक्कस्ता अणुकस्सा ॥३६॥
सुगमं ।
उकस्सा वा अणुकस्सा वा ॥३७॥
जदि उक्कस्साणुभागं पंधिय महामच्छेणुक्कस्सखेत्तं कदं तो भावेण सह खेतं पि उक्कस्सं होदि । अधवा, उक्कस्समणुभागं बंधिय जदि खेत्तमुक्कस्सं ण करेदि तो उक्कस्सभावे णिरुद्धे खेत्तमणुक्कस्सं होदि त्ति घेत्तव्वं ।
उक्कस्सादो अणकस्सा चउहाणपदिदा ॥३८॥ काणि चत्तारि हाणाणि ? असंखेजभागहाणि--संखेजभागहाणि-संखेजगुणहाणि-असंखेज्जगुणहाणि ति चत्तारि हाणाणि । एदेसिं चदुण्णं द्वाणाणं जधा उक्कस्सकाले णिरुद्ध परूवणा कदा तधा परूवणा कायव्वा । णवरि चरिमवियप्पे भण्णमाणे सव्वजहण्णोगाहणएइंदिएसु' उक्कस्साणुभागसंतकम्मिएसु चरिमा असंखेज्जगुणहाणी घेत्तव्वा । एईदिएसु कधमुक्कम्समावोवलद्धी ? ण एस दोसो, सण्णिपंचिंदियपज्जत्तएसु उक्कस्ताणुभागं बंधिय तम्घादेण विणा एइंदियभावमुवगएसु जहण्णखेत्तेण सह उक्कस्सभावोवलंभादो।
उसके क्षेत्रकी अपेक्षा उक्त वेदना क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥३६॥ यह सूत्र सुगम है। वह उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी ।। ३७ ॥
यदि उत्कृष्ट अनुभागको बाँधकर महामत्स्यके द्वारा उ कृष्ट क्षेत्र किया गया है तो भावके साथ क्षेत्र भी उत्कृष्ट होता है । अथवा, यदि उत्कृष्ट अनुभागको बाँधकर क्षेत्रको उत्कृष्ट नहीं करता है तो उत्कृष्ट भावके विवक्षित होने पर क्षेत्र अनुत्कृष्ट होता है, ऐसा ग्रहण करना चाहिये ।
वह उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट चार स्थानोंमें पतित है ॥ ३८ ॥
वे चार स्थान ये हैं-असंख्यातभागहानि, संख्यातभागहानि, संख्यातगुणहानि और असंख्यातगुणहानि । उत्कृष्ट कालकी विवक्षामें जिस प्रकार इन चार स्थानोंकी प्ररूपणा की जा चुकी है, उसी प्रकार यहाँ भी प्ररूपणा करनी चाहिये । विशेष इतना है कि अन्तिम विकल्पका कथन करते समय उकृष्ट अनुभागके सत्त्वसे संयुक्त सर्व जघन्य अवगाहनकाले एकेन्द्रिय जीवों में अन्तिम असंख्यातगुणहानिको ग्रहण करना चाहिये।
शंका-एकेन्द्रियों में उत्कष्ट भावका पाया जाना कैसे सम्भव है ?
समाधान -यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, जो संज्ञो पंचेन्द्रिय पर्याप्तक उत्कृष्ट अनुभागको बाँधकर उसके घातके बिना एकेन्द्रिय पर्यायको प्राप्त होते हैं उनके जघन्य क्षेत्रके साथ उत्कृष्ट भाव पाया जाता है।
१ ताप्रतौ 'जहण्णोगाहणा एइंदियेसु' इति पाठः।
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