Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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छक्खंडागमे वेयणाखंडं
[ ४, २, ७, २०४.
५० ] वड्डाणे भागे हिदे हाणंतरं होदि । पुणो तं चेव' फद्दयसलागाहि खंडिदेगखंड फद्दयंतरं होदि । पुणो तहि चेव' ट्ठाणे सव्वजीवरासिणा भागे हिदे उवरिमट्ठाणंतरं होदि । पुणो तम्हि द्वाणंतरे उवरिमफद्दयसलागाहि भागे हिदे तत्थतणफद्दयंतरं होदि । संपहि पुव्विलफद्दयस लागाहिंतो उवरिमट्ठाणफद्दयसलागाओ जदि [वि] एगरूवेण अहियाओ होंति तो वि पुव्विल्लभागहारादो उवरिमाणफद्दयंतरभागहारो अनंतभागन्महियो ति हेडिमफद्दयंतरादो उवरिपक्खेवफद्दयंत रमणंतभागहीणं होज । ण च एवमणग्भुवगमादो । तदो सव्वपक्वाणं फक्ष्यसलागाओ सजादिपक्खेवसलागाहि सरिसाओ त्ति घेत्तव्वं । सेसं पुव्वं व वक्तव्वं || सव्वजीवरासिणा विदियअनंतभागवड्ढिट्ठाणे भागे हिदे जं लद्धं तं तम्मि चेव पडिरासिय पक्खिते तदियमणंतंभागवडिद्वाणं होदि । एदं द्वाणंतरमणंतरादीदट्ठाणंतरादो अनंतभागभहियं । एदम्हि द्वाणंतरे फद्दयसलागाहि भागेर हिदे फद्दयंतरं होदि । एदं च फहयंतरं पुव्विलफद्दयंतरादो अनंतभागन्भहियं । कुदो ? फद्दयसलागाहि तुल्लतादो । पुण सव्वजीवरासिणा तदियअनंतभागवड्ढिट्ठाणे भागे हिदे जं लद्धं तं तम्हि चेव पडिरासिय पक्खित्ते च उत्थमणंतभागवड्ढिड्डाणं होदि । एत्थ विद्वाणंतरफद्दयंतराणं परिक्खा
सब जीवराशिका भाग देनेपर स्थानान्तर होता है । फिर उसी स्थानान्तरको स्पर्द्ध कशलाकाओं से खण्डित करनेपर एक खण्ड प्रमाण स्पर्द्ध कान्तर होता है । फिर उसी स्थानमें सब जीवराशिका भाग देनेपर ऊपरका स्थानान्तर होता है । फिर उस स्थानान्तर में उपरिम स्पर्द्ध कशलाका ओंका भाग देनेपर वहांका स्पद्ध कान्तर होता है । अब पूर्वकी स्पद्ध कशलाकाओंसे उपरिम स्थानकी स्पर्द्ध कशलाकायें यद्यपि एक अंकसे अधिक होती हैं तो भी पूर्वके भागहारसे उपरिम स्थान सम्बन्धी स्पर्द्ध कान्तरका भागहार चूंकि अनन्तवें भागसे अधिक है । अतएव अधस्तन स्पद्ध कान्तर से उपरिम प्रक्षेपस्पद्ध कान्तर अनन्तवें भागसे हीन होना चाहिये । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, वैसा स्वीकार नहीं किया गया है । इस कारण सब प्रक्षेपोंकी स्पर्द्धकशलाकायें सजाति प्रक्षेप स्पर्द्ध कशलाकाओंके समान हैं, ऐसा ग्रहण करना चाहिये ।
शेष कथन पहिलेके ही समान कहना चाहिये । सब जीवराशिका द्वितीय अनन्तभागवृद्धिस्थानमें भाग देने पर जो लब्ध हो उसे उसमें ही प्रतिराशि करके मिलानेपर तृतीय अनन्तभागवृद्धिस्थान होता है । यह स्थानान्तर अनन्तर अतीत स्थानान्तरकी अपेक्षा अनन्तवें भागसे अधिक है । इस स्थानान्तर में स्पर्द्धक शलाकाओं का भाग देनेपर स्पर्द्धकान्तर होता है । यह स्पर्द्धकान्तर पूर्वके स्पर्द्धकान्तरकी अपेक्षा अनन्तवें भागसे अधिक है, क्योंकि, वह स्पर्द्धकशलाकाओंके समान है । फिर सब जीवराशिका तृतीय अनन्तभागवृद्धिस्थान में भाग देनेपर जो लब्ध हो उसे उसीमें प्रतिराशि करके मिलानेपर चतुर्थ अनन्तभागवृद्धिस्थान होता है। यहांपर भी स्थानान्तर और
१ - प्रत्योः 'तञ्चैव' इति पाठः । २ प्रतिषु तम्हि चेव फद्दयसलागहि खंडिदेगखंड फद्दयंतर होदि । पुण तहि चेव हाणे इति पाठः । ३ ताप्रतौ 'फड्डयसलागाहि [ दे ] भागे' इति पाठः ।
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