Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
४, २, ११, २.] वयणगदिविहाणाणियोगद्दारं
(३६५ बंधसंताभावो होज्ज, तत्थ बंधकारणमिच्छत्तादि कम्मफलाणमभावादो। एवं च संते तत्थ णिव्वुइए सव्वजीवविसयाए होदव्वं । ण च एवं, तहाणुवलंभादो। ण चोहयपक्खो वि, उभयदोसाणुसंगादो त्ति पज्जवढियस्स सिस्सस्स' जीव-कम्माणं पारतंतियलक्खणसंबंधजाणावणटुं जीवपदेसपरिफंदहेदू चेव जोगो त्ति जाणावणटुं च वेयणगइविहाणं परूविज्जदे।
णेगम-ववहार-संगहाणं णाणावरणीयवेयणा सिया अवहिदा ॥२॥
राग-दोस-कसाएहि वेयणाहि वा भएण अद्धाणजणिदपरिस्समेण वा जीवपदेसेसु द्विदअद्दजलं व संचरंतेसु तत्थ समवेदकम्मपदेसाणं पि संचरणुवलंभादो। जीवपदेसेसु पुणो कम्मपदेसा द्विदा चेव, पुव्विल्लदेसं मोत्तण देसंतरे द्विदजीवपदेसेसु समवेदकम्मक्खंधुवलंभादो । कुदो एदमुपलब्भदे ? सियासढुच्चारणण्णहाणुववत्तीदो, देसे इव जीवपदेसेसु वि अद्विदत्ते अब्भुवगम्ममाणे पुन्वुत्तदोसप्पसंगादो च । अट्टण्णं मज्झिमजीवपदेसाणं संकोचो विकोचो वा णस्थि त्ति तत्थ द्विदकम्मपदेसाणं पि अद्विदत्तं णत्थि बन्ध और सत्त्वका अभाव हो जाना चाहिये, क्योंकि, दूसरे समयमें बन्धके कारण मिथ्यात्वादिका तथा कर्मफलका अभाव है । और ऐसा होनेपर उस समय सब जीवोंकी मुक्ति हो जानी चाहिये । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि वैसा पाया नहीं जाता। यदि उभय पक्षको स्वीकार किया जाय तो वह भी ठीक नहीं है, क्योंकि, वैसा स्वीकार करनेपर उभय पक्षों में दिये गये दोषोंका प्रसंग आता है । इस प्रकारसे पर्यायदृष्टिवाले शिष्यके लिये जीव व कर्मके पारतन्त्र्य स्वरूप सम्बन्धको बतलानेके लिये तथा जीवप्रदेशोंके परिस्पन्दका हेतु योग ही है इस बातको भी बतलानेके लिये 'वेदनागतिविधान की प्ररूपणा की जा रही है।
- नैगम, व्यवहार और संग्रह नयोंकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयकी वेदना कथंचित् अवस्थित है ॥२॥
राग, द्वेष और कषायसे; अथवा वेदनाओंसे, भयसे अथवा अध्वानसे उत्पन्न परिश्रमसे मेघोंमें स्थित जलके समान जीवप्रदेशोंका संचार होनेपर उनमें समवायको प्राप्त कर्मप्रदेशोंका भी संचार पाया जाता है । परन्तु जीवप्रदेशोंमें कर्मप्रदेश स्थित ही रहते हैं, क्योंकि, जीवप्रदेशोंके पूर्वके देशको छोड़कर देशान्तरमें जाकर स्थित होनेपर उनमें समवायको प्राप्त कर्मस्कन्ध पाये जाते हैं।
शंका-यह अर्थ किस प्रमाणसे उपलब्ध होता है ?
समाधान-एक तो ऐसा अर्थ ग्रहण किये बिना ‘स्यात्' शब्दका उच्चारण घटित नहीं होता। दूसरे देशके समान जीवप्रदेशोंमें भी कर्मप्रदेशोंको अस्थित स्वीकार करनेपर पूर्वोक्त दोषका प्रसंग आता है। इससे जाना जाता है कि जीव प्रदेशोंके देशान्तरको प्राप्त होनेपर उनमें कर्म प्रदेश स्थित ही रहते हैं।
शंका-यतः जीवके आठ मध्य प्रदेशोंका संकोच अथवा विस्तार नहीं होता अतः उनमें १ अ-श्रा-का प्रतिषु 'सिस्सस्स' इत्येतत्पदं नोपलभ्यले । २ प्रतिषु 'अहिद' इति पाठः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org