Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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srisrगमे वेयणाखंड
[ ४, २, १३, २१.
खंडेण तत्थ एगखंडेण ऊणउकस्सट्ठिदीए पबद्धाए वि असंखेज्जभागहाणी चैव होदि । तत्तो हुडि एगेगसमयपरिहाणीए बंधाविज्जमाणे' वि असंखेज्जभागहाणी' चेव होदि । पुणो एवं गंतूण उक्कस्ससंखेज्जेण खंडेदूण तत्थ एगखंडेण परिहीणउकस्सट्ठिदीए पबद्धाए संखेज्जभागपरिहाणी होदि । एत्तो पहुडि संखेज्जभागपरिहाणी चेव होतॄण गच्छदि जाव एगसमयाहियमद्धं चेट्टिदं ति । पुणो तत्तो एगसमयपरिहीणट्टिदीए पबद्धाए गुणहाणी होदि । एत्तो पहुडि संखेज्जगुणहाणी चेव होदूण गच्छदि जाव सत्तमपुढविपाओग्गअंतोकोडा कोडि त्ति । णवरि खेत्तं उक्कस्समेवे त्ति सव्वत्थ वत्तव्वं । तस्स भावदो किस्सा अणुक्कस्सा ॥ २१ ॥ सुगममेदं पुच्छासुतं ।
उक्कस्सा वा अणुकस्सा वा ॥ २२ ॥
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तदुक्कस्सखेचमहामच्छेण उक्कस्ससंकिलिसेण उक्कस्सविसेसपचएण जदि उक्कस्साभागो बद्धो तो खेत्तेण सह भावो वि उक्कस्सो होज्ज । एदम्हादो अण्णस्स उक्कस्सखेतसामिजीवस्स भावो अणुक्कस्सो चेव, उक्कस्सविसेसपच्चयाभावादो |
उकस्सादो अणुक्कस्सा छट्टाणपदिदा ॥ २३ ॥
सागरोपमको जघन्य परीता संख्यात से खण्डित करनेपर उनमें एक खण्ड से हीन उत्कृष्ट स्थिति बांधी जाती है तब तक असंख्यात भागहानि ही होती है। वहां से लेकर एक एक समयकी हानि युक्त स्थितिके बांधनेपर भी असंख्यात भागद्दानि ही होती है । पश्चात् इसी प्रकार से जाकर [ उत्कृष्ट स्थितिको ] उत्कृष्ट संख्यातसे खण्डित करके उसमें एक खण्डसे हीन उत्कृष्ट स्थितिको बाँधनेपर संख्यात भागहानि होती है। यहांसे लेकर संख्यातभागहानि ही होकर जाती है जब तक उसका एक समय अधिक अर्ध भाग स्थित रहता है । तत्पश्चात् उसमें से एक समय हीन स्थिति के बांधे जानेपर दुगुणी हानि होती है । यहांसे लेकर सातवीं पृथिवीके योग्य अन्तःकोड़ाकोड़ि सागरोपम प्रमाण स्थिति बन्धके प्राप्त होने तक संख्यातगुणहानि ही होकर जाती है । विशेष इतना है कि क्षेत्र उत्कृष्ट ही रहता है, ऐसा सर्वत्र कहना चाहिये ।
उसके उक्त वेदना भावकी अपेक्षा क्या उत्कृष्ट होती है या अनुत्कृष्ट ॥ २१ ॥ यह पृच्छासूत्र सुगम है ।
वह उत्कृष्ट भी होती है और अनुत्कृष्ट भी ॥
२२ ॥
उक्त उत्कृष्ट क्षेत्रके स्वामी महामत्स्य के द्वारा उत्कृष्ट विशेष प्रत्यय रूप उत्कृष्ट संकेश से यदि उत्कृष्ट अनुभाग बाँधा गया है तो क्षेत्रके साथ भाव भी उत्कृष्ट हो सकता है । इससे भिन्न उत्कृष्ट क्षेत्रके स्वामी जीवका भाव अनुत्कृष्ट ही होता है, क्योंकि, उसके उत्कृष्ट विशेष प्रत्ययका अभाव है ।
वह उत्कृष्टकी अपेक्षा अनुत्कृष्ट छह स्थानोंमें पतित है ।। २३ ।।
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१ - श्रापत्योः 'बद्धाविज्जमाणे', का-ताप्रत्योः 'वड्डाविजमाणे' इति पाठः । २ - का-ताप्रतिषु 'संखेजहाणी', प्रतौ 'असंखे०हाणी' इति पाठः । २ - श्राकाप्रतिषु 'विसेसणपच्चएण' इति पाठः ।
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