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6. ४, २, ११, १२.] वेयणगदिविहाणाणियोगदारं
[ ३६९ ण पुचिल्लणए अस्सिदण जा परूवणा कदा तिस्से असच्चत्तं, सियासद्देण तिस्से वि सच्चत्तपरूवणादो।
एवं सत्तण्णं कम्माणं ॥ ११ ॥
उजुसुदणयमस्सिदण जहा णाणावरणीयस्स परूवणा कदा तहा सेससत्तणं कम्माणं परूवणा कायव्वा, ठिदभावेण' अहिदभावेण च विसेसाभावादो ।
सद्दणयस्स अवत्तव्वं ॥ १२॥
कुदो ? तस्स विसए दव्वाभावादो तस्स विसये 'द्विदाद्विदाणमभावादो वा। तं जहा-ण ताव द्विदमत्थि, सव्वपयत्थाणमणिञ्चत्तब्भुवगमादो। ण अहिदभूयं पि, असंते' पडिसेहाणुववत्तीदो त्ति । -
एवं वेयणगदिविहाणे त्ति समत्तमणियोगद्दारं ।
पूर्वोक्त नयोंका आश्रय करके जो प्ररूपणा की गई है वह असत्य नहीं ठहरती, क्योंकि, 'स्यात्' शब्दके द्वारा उसकी भी सत्यता प्ररूपित की गई है।
इसी प्रकार सात कमौके विषयमें जानना चाहिये ॥ ११ ॥
ऋजुसूत्र नयका आश्रय करके जिस प्रकार ज्ञानावरणीयकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार शेष सात कर्मोंकी प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि, स्थित रूप व अस्थितरूपसे इसमें उससे कोई विशेषता नहीं है।
शब्द नयकी अपेक्षा वह अवक्तव्य है ॥ १२ ॥
क्योंकि द्रव्य शब्द नयका विषय नहीं है, अथवा स्थित व अस्थित शब्दनयके विषय नहीं हैं। स्पष्टीकरण इस प्रकार है-उक्त नयका विषय स्थित तो बनता नहीं है, क्योंकि
स्थत तो बनता नहीं है, क्योंकि, इस नयमें समस्त पदों व उनके अर्थों को अनित्य स्वीकार किया गया है। अस्थित स्वरूप भी नहीं बनता क्योंकि, असत्का प्रतिषेध बन नहीं सकता।
इस प्रकार वेदनागतिविधान यह अनुयोगद्वार समाप्त हुआ।
१ अ-श्रा-काप्रतिषु 'ठिदाभावेण' इति पाठः ।। २.अ-श्रा-का-ताप्रतिषु 'तस्स वि हिदाहिदाण' इति पाठः । ३ अ-श्रा-काप्रतिषु 'असंखे' इतिपाठः।
छ. १२-४७
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