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वेयणसण्णियासविहाणाणियोगद्दारं
वेयणसण्णियासविहाणे ति ॥ १ ॥
एदमहियार संभालणमुत्तं, अण्णा अणुत्ततुल्लत्तपसंगादो | जो सो वेयणसण्णियासो सो दुविहो - सत्थाणवेयणसण्णियासो चेव परत्थाणवेयणसण्णियासो चेव ॥ २ ॥
दस अत्थो वच्च । तं जहा - अप्पिदेगकम्मस्स दव्व-खेत्त-काल- भावविसओ सत्थाणसणियासी णाम । अट्ठकम्मविसओ परत्थाणसण्णियासो णाम । सण्णियासो णाम किं ? ' दव्व-खेत-काल- भावेसु जहण्णुकस्सभेदभिण्णेसु एक्कम्हि णिरुद्धे' सेसाणि किमुकस्साणि किमणुक्कस्साणि किं जहण्णाणि किम जहण्णाणि वा पदाणि होति त्ति जा परिक्खा सोसण्यासो णाम । एवं सण्णियासो दुविहो चेव । सत्थाण-परत्थाणसंजोगेण
वेदनासंनिकर्षविधान अनुयोगद्वार अधिकारप्राप्त है ॥ १ ॥
यह सूत्र अधिकारका स्मरण कराता है, क्योंकि, इसके बिना अनुक्तके समान होनेका प्रसंग आता है ।
जो वह वेदनासंनिकर्ष है वह दो प्रकार का है - स्वस्थान वेदनासंनिकर्ष और परस्थानवेदनासंनिकर्ष ॥ २ ॥
इस सूत्रका अर्थ कहते हैं, वह इस प्रकार है- किसी विवक्षित एक कर्मका जो द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भाव विषयक संनिकर्ष होता है वह स्वस्थानसंनिकर्ष कहा जाता है और आठों कर्मों विषयक संनिकर्ष परस्थानसंनिकर्ष कहलाता है ।
शंका - संनिकर्ष किसे कहते हैं ?
समाधान—जघन्य व उत्कृष्ट भेदरूप द्रव्य, क्षेत्र, काल एवं भावों में से किसी एकको विवक्षित करके उसमें शेष पद क्या उत्कृष्ट हैं, क्या अनुत्कृष्ट हैं, क्या जघन्य हैं और क्या अजघन्य हैं, इस प्रकारकी जो परीक्षा की जाती है उसे संनिकर्ष कहते हैं । इस प्रकार से संनिकर्ष दो प्रकारका ही है ।
शंका - स्वस्थान और परस्थानके संयोग रूप भेद के साथ तीन प्रकारका संनिकर्ष क्यों नहीं होता ?
१ तो परत्थाण णाम सण्णियासो णाम किं दव्व-', श्राप्रतौ 'परत्थाण णाम सण्णियासो नाम कि अत्थो वुच्चदे दव्व-', काप्रतौ परत्थाणसण्णियासो णाम किं दव्व- ताप्रतौ 'परत्थाणसण्णियासो णाम । किं दव्व - ' इति पाठः । २ अ ा का प्रतिषु 'विरुद्धे', ताप्रतौ 'वि (णि) रुद्धे' इति पाठः ।
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