Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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३८२] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, १३, १७ ण च सत्तमपुढविणेरइयचरिमसमयम्मि उक्कस्सजोगसंकिलेसेण गुणिदभावणिबंधषण जादउक्कस्सदव्वं महामच्छम्मि होदि, विरोहादो। ण च कारणेण विणा कज्जमुप्पज्जदि, अइप्पसंगादो। तम्हा दव्ववेयणा अणुकस्से त्ति भणिदं ।।
चउहाणपदिदा-असंखेजभागहीणा वा संखेजुभागहीणा वा संखेजगुणहीणा वा असंखेजगुणहीणा वा ॥ १७ ॥ ___उक्कस्सखेत्तसामिदव्ववेयणा णियमेण अणुकस्सभावमुवगया सगओघुकस्सदव्वं पेक्खिदूण कधं होदि ति पुच्छिदे चउहाणपदिदा ति णिद्दिष्टुं । काणि ताणि चउट्ठाणाणि त्ति भणिदे तेसिं णामणिद्देसो कदो अणंतभागहीण-अणंतगुणहीणपडिसेहटुं। एत्थ ताव चदुण्णं हाणीणं परूवणा कीरदे । तं जहा-एगो गुणिदकम्मंसिओ सत्तमपुढवि. णेरइओ तेत्तीसाउद्विदीओ' सगभवद्विदीए चरिमसमए दामुक्कस्सं करिय कालं कादण तसकाइयेसु एइंदिएसु च अंतोमुहुत्तमच्छिय महामच्छो जादो, पज्जत्तयदो होदण अंतोमुहुत्तेण अद्धट्ठमरज्जुआयामपमाणं मारणंतियं कादूण उक्कस्सखेत्तसामी जादो। तकाले तस्स दव्वमोघुक्कस्सदव्वं पेक्खिदूण असंखेज्जभागहीणं होदि। पलिदोवमस्स असंखे. ज्जदिमागं विरलेदूण ओघुक्कस्सदव्वं समखंडं कादण दिण्णे एकेकस्स रूवस्स गट्ठदव्वसंक्लेशका अभाव होनेसे उत्कृष्ट द्रव्य का सद्भाव माननेमें विरोध है । और सातवीं पृथिवीमें स्थित
कीके चरम समयमें गुणित भावके कारणभूत उत्कृष्ट योग व संलशसे जो उत्कृष्ट द्रव्य होता है वह महामत्स्य के सम्भव नहीं है, क्योंकि, वैसा होने में विरोध आता है। कारणके बिना कहीं भी कार्यकी उत्पत्ति नहीं होती है, क्योंकि, वैसा होनेपर अतिप्रसंग दोष आता है । इसी कारण द्रव्यवेदना अनुत्कृष्ट होती है ऐसा कहा गया है।
वह अनुत्कृष्ट द्रव्यवेदना असंख्यातभागहीन, संख्यातभागहीन, संख्यातगुणहीन अथवा असंख्यातगुणहीन इन चार स्थानोंमें पतित है ॥ १७ ॥
__ उत्कृष्ट क्षेत्रके स्वामीकी द्रव्यवेदना नियमसे अनुत्कृष्ट भावको प्राप्त होकर अपने सामान्य उत्कृष्ट द्रव्यकी अपेक्षा कैसी होती है, ऐसा पूछनेपर 'वह चतुःस्थानपतित होती है। ऐसा सूत्रमें निर्देश किया गया है । वे चतुःस्थान कौनसे हैं, ऐसा पूछनेपर अनन्तभागहीन और अनन्तगुणहीन
नोंका प्रतिषेध करने के लिये उन चार स्थानोंके नामोंका निर्देश किया गया है। यहाँ पहिले चार हानियोंकी प्ररूपणा करते हैं। वह इस प्रकार है-एक गुणितकर्माशिक तेतीस सागरोपम प्रमाण आयुःस्थितिवाला सातवीं पृथिवीका नारकी अपनी भवस्थितिके अन्तिम समयमें द्रव्यको उत्कृष्ट करके मरणको प्राप्त हो त्रसकायिक और एकेन्द्रियोंमें अन्तमुहूर्त तक रहकर महा. मत्स्य हुआ। वह अन्तर्मुहूर्तमें पर्याप्त होकर साढ़ेसात राजु आयाम प्रमाण मारणान्तिक समुद्घातकोकरके उत्कृष्ट क्षेत्रका स्वामी हुआ। उस समय उसका द्रव्य सामान्य उत्कृष्ट द्रव्य की अपेक्षा असं. ख्यातवेंभागहीन होता है, क्योंकि पल्योपमके असंख्यातवेंभागको विरलितकर ओघ उत्कृष्ट द्रव्यको
१ प्रतिषु णेरइयतेत्तिसाउहिदीश्रो इति पाठः ।
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