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वेयणअणंतरविहाणाणियोगद्दारं वेयणअणंतरविहाणे ति ॥ १॥
अहियारसंभालणसुत्तमेदं । किमट्ठमेसो अहियारो वुच्चदे ? पुव्वं वेयणवेयणविहाणे बज्झमाणं पि कम्मं वेयणा, उदिणं पि उवसंतं पि वेयणा ति परूविदं । तत्थ जंतं बज्झमाणकम्मं तं किं बज्झमाणसमए चेव विपच्चिदृण फलं देदि आहो विदियादिसमएसु फलं देदि ति पुच्छिदे एवं फलं देदि त्ति जाणावणटुं वेयणअणंतरविहाणमागदं । तत्थ बंधो दुविहो-अणंतरबंधो परंपरबंधो चेदि । को अणंतरबंधो णाम ? कम्मइयवग्गणाए ट्ठिदपोग्गलक्खंधा' मिच्छत्तादिपञ्चएहि कम्मभावेण परिणदपढमसमए अणंतरबंधा'। कधमेदेसिमणंतरबंधत्तं ? कम्मइयवग्गणपज्जयपरिच्चत्ताणंतरसमए चेव कम्मपज्जएण परिणयत्तादो । को परंपरबंधो णाम ? बंधविदियसमयप्पहुडि कम्मपोग्गलक्खंधाणं जीवपदेसाणं च जो बंधो सो परंपरबंधो णाम । कधं बंधस्स परंपरा ? पढमसमए बंधो जादो,
वेदना अनन्तरविधान अनुयोगद्वार अधिकार प्राप्त है ॥ १ ॥ यह सूत्र अधिकारका स्मरण कराता है। शंका-इस अधिकारकी प्ररूपणा किसलिये की जा रही है ?
समाधान-पहिले वेदनावेदनाविधान अनुयोगद्वारमें बध्यमान कर्म भी वेदना है, उदीण और उपशान्त कर्म भी वेदना है। यह प्ररूपणा की जा चुकी है। उनमें जो बध्यमान कर्म है वह क्या बँधनेके समयमें ही परिपाकको प्राप्त होकर फल देता है, अथवा द्वितीयादिक समयोंमें फल देता है; ऐसा पूछे जानेपर 'वह इस प्रकारसे फल देता है। यह ज्ञात करानेके लिये वेदनाअनन्तरविधान अनुयोगद्वारका अवतार हुआ है।
बन्ध दो प्रकारका है-अनन्तरबन्ध और परम्पराबन्ध । शंका-अनन्तरबन्ध किसे कहते हैं ?
समाधान-कार्मण वर्गणा स्वरूपसे स्थित पुद्गलस्कन्धोंका मिथ्यात्वादिक प्रत्ययोंके द्वारा कर्म स्वरूपसे परिणत होने के प्रथम समयमें जो बन्ध होता है उसे अनन्तरबन्ध कहते हैं।
शंका-इन पुद्गलस्कन्धोंकी अनन्तरबन्ध संज्ञा कैसे है ?
समाधान-चूँकि वे कार्मण वर्गणा रूप पर्यायको छोड़नेके अनन्तर समयमें ही कर्म रूप पर्यायसे परिणत हुए हैं, अतः उनकी अनन्तरबन्ध संज्ञा है।
शंका-परम्पराबन्ध किसे कहते हैं ?
समाधान-बन्ध होनेके द्वितीय समयसे लेकर कर्मरूप पुद्गलस्कन्धों और जीवप्रदेशोंका जो बन्ध होता है उसे परम्पराबन्ध कहते हैं ।
१ ताप्रतौ 'पोग्गलक्खंधा [णं ] इति पाठः। २ अ-श्रा-काप्रतिषु 'समए अणंतरबंधो', ताप्रतौ समए [बंधो ] अणंतरबंधो' इति पाठः ।
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