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३६८] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४,२, ११, ७. सुगममेदं; णाणावरणीयपरूवणाए चेव अवगदसरूवत्तादो। सिया हिदाहिदा ॥७॥ एदस्स वि णाणावरणीयभंगो। एवमाउव-णामा-गोदाणं ॥८॥ जहा वेयणीयस्स परूविदं तहा एदेसिं तिण्णं कम्माणं वत्तव्वं भेदाभावादो। उजुसुदस्स णाणावरणीयवेयणा सिया हिदा ॥६॥
छदुमत्थेसु सजोगेसु कधं सव्वेसिं जीवपदेसाणं द्विदत्तं होदि उजुसुदणए ? को एवं भणदि' उजुसुदणओ सम्वेसि जीवपदेसाणं कम्हि वि काले द्विदत्तं चेव इच्छदि त्ति । किंतु जे द्विदा ते द्विदा चेव, ण अहिदा; ठिदेसु अद्विदत्तविरोहादो। एस उजुसुदणयाहिप्पाओ।
सिया आठ्ठदा॥१०॥
जे अद्विदजीवपदेसा ते अद्विदा चेव ण तत्थ द्विदभूआ', द्विदाद्विदाणमेगत्थ एगसमए अवट्ठाणाभावादो। तेण कारणेण उजुसुदणए दुसंजोगभंगोणत्थि त्ति अवणिदो।
यह सूत्र सुगम है, क्योंकि, ज्ञानावरणीय कर्मकी प्ररूपणासे ही उसके स्वरूपका ज्ञान हो जाता है।
कथंचित् वह स्थित-अस्थित है ॥ ७ ॥ इसकी भी प्ररूपणा ज्ञानावरणीयके ही समान है। इसी प्रकार आयु; नाम और गोत्र कर्मके सम्बन्धमें जानना चाहिये ॥ ८॥
जिस प्रकार वेदनीय कर्मके गतिविधानकी प्ररूपणा की गई है उसी प्रकार इन तीन कर्मों के गतिविधानकी प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि, उससे इसमें कोई विशेषता नहीं है।
ऋजुसूत्र नयकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयकी वेदना कथंचित् स्थित है॥९॥
शंका-योगसहित छद्मस्थ जीवोंमें ऋजुसूत्र नयकी अपेक्षा सभी जीवप्रदेश स्थित कैसे हो सकते हैं ?
समाधान-ऐसा कौन कहता है कि ऋजुसूत्र नय सब जीवप्रदेशोंको किसी भी कालमें स्थित ही स्वीकार करता है ? किन्तु जो जीवप्रदेश स्थित हैं वे स्थित ही रहते हैं, उस कालमें वे अस्थित नहीं हो सकते । क्योंकि, स्थित जीवप्रदेशोंके अस्थित होनेका विरोध है। यह ऋजुसूत्र नयका अभिप्राय है।
कथंचित् वह अस्थित है ॥१०॥
जो जीवप्रदेश अस्थित हैं वे अस्थित ही रहते हैं, न कि स्थित; क्योंकि, इस नयकी अपेक्षा स्थित-अस्थित जीवप्रदेशोंका एक जगह एक समयमें अवस्थान नहीं हो सकता। इस कारण ऋजुसूत्र नयकी अपेक्षा द्विसंयोग भंग नहीं है, अत: वह परिगणित नहीं किया गया है। पर इससे
१ अ-श्रा-काप्रतिषु 'भण्णदि' इति पाठः । २ अ-श्रा-काप्रतिषु 'छिदभूत्र', तापतौ 'हिदभूत्र (अं) इति पाठः।
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