________________
वेदणापचयविहाणाणियोगद्दार
वेयणपञ्चयविहाणे त्ति ॥ १॥ एदमहियारसंभालणसुत्तं, अणवगयाहियारस्स अंतेवासिस्स परूवणाए फलाभावादो। सव्वं कम्मं कज्जं चेव, अकजस्स कम्मस्स सप्तसिंगस्सेव अभावावत्तीदो। ण च एवं, कोहादिकजाणमत्थित्तण्णहाणुववत्तीदो कम्माणमस्थित्तसिद्धीए । कज्जं पि सव्वं सहेउअं चेव, णिकारणस्स कजस्स अणुवलंभादो। तम्हा सुत्तेण विणा वि कम्माणं सहेउअत्तसिद्धीदो पञ्चय विहाणं णाढवेदव्वमिदि' ? एत्थ परिहारो वुच्चदे-कम्माणं कज्जत्तं सकारणत्तं च जुत्तीए सिद्धं चेव । किंतु पञ्चयस्स विहाणं पवंचो भेदो अणेण परूविजदे कारणविसयविप्पडिवत्तिणिराकरणहूँ ।
(णेगम-ववहार-संगहाणंणाणावरणीयवेयणापाणादिवादपच्चए॥२॥) पाणादिवादो णाम' पाणेहितो पाणीणं विजोगो। सो जतो मण-वयण-कायवावावेदनाप्रत्ययविधान अधिकार प्राप्त है ॥ १॥
यह सूत्र अधिकारका स्मरण करानेवाला है, क्योंकि अधिकारसे अनभिज्ञ शिष्यके प्रति की जानेवाली प्ररूपणाका कोई फल नहीं है।
शंका-सब कर्म कार्यस्वरूप ही है, क्योंकि, जो कर्म अकार्यस्वरूप होते हैं उनका खरगोशके सींगके समान अभावका प्रसंग आता है । परन्तु ऐसा है नहीं, क्योंकि, क्रोधादिरूप कार्योंका अस्तित्व बिना कर्मके बन नहीं सकता, अतएव कर्मका अस्तित्व सिद्ध ही है। कार्य भी जितना है वह सब सकारण ही होता है, क्योंकि, कारण रहित कार्य पाया नहीं जाता। इस कारण चूकि सूत्रके बिना भी कर्मोंकी सकारणता सिद्ध है, अतः प्रत्ययविधानका प्रारम्भ करना उचित नहीं है ? - समाधान- यहाँ उपर्युक्त शंकाका उत्तर कहा जाता है-कोकी कार्यरूपता और सकारणता तो युक्तिसे ही सिद्ध है । किन्तु उनके कारण विषयक विरोधका निराकरण करनेके लिये इस अधिकारके द्वारा प्रत्यय अर्थात् करणके विधान अर्थात् प्रपंच या भेदकी प्ररूपणा की जा रही है।
नैगम, व्यवहार और संगहनयकी अपेक्षा ज्ञानावरणीय वेदना प्राणातिपात प्रत्ययसे होती है ॥ २॥
प्राणातिपातका अर्थ प्राणोंसे प्राणियोंका वियोग करना है । वह जिन मन, वचन या कायके
१ अ-आप्रत्योः ‘णादवेदव्वमिदि' पाठः । २ ताप्रतौ 'पाणादिवादो णाम' इत्येतावानयं पाठः सूत्रान्तर्गतोऽस्ति ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org