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४, २, १०, १७] वेयणमहाहियारे वेयणवेयणविहाणं
[३१९ ११११२२२२ उदिण्ण-उवसंत जीव-पयडि-समयपत्थारं ११२२११२२ च परिवाडीए
१२१२१२१२ 'भंगायामपमाणं लहुओ गरुओ त्ति अक्खणिक्खेवो। तत्तो य दुगुण-दुगुणा पत्थारो विण्णसेयव्वो' ॥१॥'
११११२२२२॥ एदीए गाहाए ठविय ११२२११२२/ अत्थपरूवणा कायवा । अधवा, १११ ।
१२१२१२१२ १११ । १११ ।
बज्झमाण-उदिण्ण-उवसंतेसुजीव-पयडि-समयाणमेग-बहुवयणाणि ठविय २२२ । २२२
'पढमक्खो अंतगओ आदिगए संकमेदि बिदियक्खो। दोणि वि गंतूणतं आदिगदे संकमेदि तदियक्खो ॥२॥'
जीव | एक | एक एक | एक अनेक अनेक अनेक अनेक प्रकृति और समय, इनके एक व बहुवचनोंके प्रस्तारको
प्रकृति एक | एक अनेक अनेक एक | एक अनेक अनेक
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समय | एक |अनेका एक |अनेक एक |अनेक एक अनेक
तथा [उदीर्ण] एवं उपशांत वेदनाके विषयमें जीव, प्रकृति और समयके प्रस्तारको भी परिपाटीसे, 'भंगोंके आयाम प्रमाण अर्थात् प्रथम पंक्तिगत भङ्गोंका जितना प्रमाण हो उतने बार लघु और गुरु इस प्रकारसे अक्षनिक्षेप किया जाता है। तथा आगे द्वितीयादि पंक्तियों में दुगुणे दुगुणे प्रस्तारका विन्यास करना चाहिये ॥१॥
इस गाथाके अनुसार स्थापित करके (संदृष्टि पहिलेके ही समान ) अर्थकी प्ररूपणा करनी चाहिये । अथवा, बध्यमान, उदीर्ण और उपशान्त वेदनाके सम्बन्धमें जीव, प्रकृति और समय, इनके
बध्यमान
उदीर्ण
उपशान्त
करके
| जीव प्रकृति समय | जीव प्रकृति समय | जीव प्रकृति समय एक व बहुवचनोंको स्थापित
| एक | एक | एक | एक एक एक | एक एक एक
अनेक अनेक . अनेक अनेक अनेक अनेक अनेक अनेक 'प्रथम अक्ष अन्तको प्राप्त होकर जब पुनः आदिको प्राप्त होता है तब द्वितीय अक्ष बदलता है। जब प्रथम और द्वितीय दोनों ही अक्ष अन्तको प्राप्त होकर पुनः आदिको प्राप्त होते हैं तब तृतीय अक्ष बदलता है ॥२॥
१ क. पा० २, पृ० ३०८ । २ प्रतिषु 'उदिण्णा' इति पाठः । ३ गा० जी० ४०, मूला० ११-२३,
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