Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
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४, २, १०, ४०.] वेंणयमहाहियारे वेयणवेयणविहाणं
[३५१
११२२|११२२ जीवसमयाणं बहुक्यणेहि य उप्पण्णपत्थारं च ठवेदूण ११११११११ पच्छा भंगुप्पत्तिं वत्तइस्सामो) तं जहा-एयस्स जीवस्स एया पयडी ऐयसमयपबद्धा उदिण्णा, तस्सेव जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा उवसंता, सिया उदिण्णा च उवसंता च वेयणा । एवमेगो भंगो [१] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमया पयडी एयसमयपबद्धा उदिण्णा, तेसिं चेव जीवाणं एया पयडी एयसमयपबद्धा उवसंता, सिया उदिण्णा च उवसंता च वेयणा । एवं बे भंगा [२] उदिण्णुवसंताणं दुसंजोगपढमसुत्तस्स ।
सिया उदिण्णा च उवसंताओ च ॥४०॥
एदस्स विदियसुत्तस्स भंगे वत्तइस्सामो। तं जहा-एयस्स जीवस्स एया पयडी एयसमयपबद्धा उदिण्णा, तस्सेव जीवस्स एया पयडी अणेयसमयपबद्धा उवसंताओ, सिया उदिण्णाओ' च उवसंताओ च वेयणाओ । एवमेगो भंगो [१] । अधवा, अणेयाणं जीवाणमेया पयडी एयसययपबद्धा उदिण्णा, तेसिं चेव जीवाणमेया पयडी अणेयसमयपबद्धा उवसंताओ, सिया उदिण्णा च उवसंताओ च वेयणाओ। एवं बे भंगा [२] एदस्त सुत्तस्स। उपशान्त सम्बन्धी जीव, प्रकृति और समयके एकवचन तथा जीव व समयके बहुवचनसे उत्पन्न प्रस्तार उदीर्ण
उपशान्त ... जीव | एक | एक अनेक अनेक एक | एक अनेक अनेक
- स्थापित करके पश्चात् भंगोंकी प्रकृति| एक | एक एक | एक | एक | एक | एक | एक
समय एक अनेक एक अनेक एक अनेक एक अनेक उत्पत्तिको कहते हैं । यथा-एक जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, उसी जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; 'कथंचित् उदीर्ण और उपशान्त वेदना है। इस प्रकार एक भंग हुआ (१)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् उदीर्ण और उपशान्त वेदना है। इस प्रकार उदीर्ण और उपशान्त इन दोके संयोग रूप प्रथम सूत्रके दो भंग हैं (२)।
कथंचित् उदीणे (एक) और उपशान्त ( अनेक ) वेदनायें हैं ॥ ४०॥
इस द्वितीय सूत्रके भंगोंको कहते हैं। यथा-एक जीवकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण. उसी जीवकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त: कथंचित उदीर्ण और उपशान्त वेदनाये हैं। इस प्रकार एक भङ्ग हुआ (१)। अथवा, अनेक जीवोंकी एक प्रकृति एक समयमें बाँधी गई उदीर्ण, उन्हीं जीवोंकी एक प्रकृति अनेक समयोंमें बाँधी गई उपशान्त; कथंचित् उदीर्ण और उपशान्त वेदनायें हैं । इस प्रकार इस सूत्रके दो भङ्ग हैं (२)।
१ अ श्रा-काप्रतिषु 'उदिण्णाश्रो', तापतौ 'उदिण्णा [ओ]' इति पाठः ।
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