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४, २, १०, ३०. ]
वेयणमहाहियारे वेयणत्रेयणविहाणं
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सत्तणं कम्माणं परूवेदव्वं, विसेसाभावादो । संपहि ववहारणयम स्सिदृण वेयणवेयण
विहाणपरूवणमुत्तरमुत्तं मणदि
सिया
बज्झमाणिया
ववहारणयस्स णाणावरणीयवेयणा
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वेयणा ॥ ३० ॥ दस्त अत्थे भण्णमाणे ताव जीव-पय डि-समयाण मे गवयणाणि जीवाणं बहुवयणं च वेदव्वं |१ १ || किमहं समय बहुवयणमवणिदं ? णाणावरणीयस्स बज्झमाणत्तमे गम्हि चैव समए होदि ति जाणावण । अदीदाणागदसमया एत्थ किण्ण गहिदा ? ण, अदीदे काले बद्धकम्मक्खंधाणमुवसंतभावेण बज्झमाणत्ताभावादी । णाणागाणं पिकमधाणं वज्झमाणत्तं, तेसिं संपहिजीवे अभावादो । तम्हा कालस्स एयत्तं चैव, ण बहुत्तमिदि सिद्धं । पयडीए बहुत्तं किमहमोसारिदं १ णाणावरणभावं मोत्ण तत्थ अण्णभावाणुवलंभादो । आवरणिज्जस्स भेरे आवरणपयडिभेदो होदि । उसी प्रकार शेष सात कर्मोंके वेदनावेदनविधानकी प्ररूपणा करनी चाहिये, क्योंकि, उसमें कोई विशेषता नहीं है। अब व्यवहार नयका आश्रय करके वेदनावेदनविधानकी प्ररूपणा करनेके लिये गेका सूत्र कहते हैं
व्यवहार नयकी अपेक्षा ज्ञानावरणीयकी वेदना कथंचित् बध्यमान वेदना है ॥ ३० ॥
इस सूत्र के अर्थका कथन करते समय पहिले जीव, प्रकृति और समय, इनके एकवचन तथा जीव प्रकृति समय
एक अनेक
जीवों के बहुवचन स्थापित करने चाहिये एक
अनेक
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शंका-समय के बहुवचनको क्यों कम कर दिया गया है ?
समाधान - ज्ञानावरणीयका 'बध्यमान' स्वरूप एक समयमें ही होता है, यह प्रगट करने के लिये समय के बहुवचनको कम किया गया है ।
शंका- अतीत और अनागत समयोंको यहाँ क्यों नहीं ग्रहण किया गया है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, अतीत कालमें बाँधे गये कर्मस्कन्धोंके उपशमभाव से परिणत होनेके कारण उनके उस समय बध्यमान स्वरूपका अभाव है। अनागत भी कर्मस्कन्ध बध्यमान नहीं हो सकते, क्योंकि, इस समय जीव में उनका अभाव है। इस कारण कालका एकवचन ही है, बहुवचन सम्भव नहीं है; यह सिद्ध है ।
शंका- प्रकृतिके बहुवचनको क्यों अलग किया गया है ?
समाधान-- - चूँकि उसमें ज्ञानावरण स्वरूपको छोड़कर और कोई दूसरा स्वरूप नहीं पाया जाता है, अतः उसके बहुवचनको अलग किया गया है । आवरणीय (आवरण के योग्य) का भेद
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