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डागमे वेयणाखंड
'एए छच्च समाणा दोषिण य संझक्खरा सरा अट्ठ । अण्णोष्णस्स परोप्पर मुर्वेति सव्वे समावेस ' ॥ ३ ॥
इत्यनेन सूत्रेण प्राकृते एकारस्य आकारविधानात् । मोषस्तेयः । ण मोसो अदतादाणे पविस्सदि, हदपदिदपमुकणिहिदादाणविसयम्मि अदत्तादाणम्मि एदस्स पवेस - विरोहादो । बौद्ध-नैयायिक सांख्य-मीमांसक चार्वाक-वैशेषिकादिदर्शन रुच्यनुविद्धं ज्ञानं मिथ्याज्ञानम् । मिच्छत्त सम्मामिच्छत्ताणि मिच्छदंसणं । मण वचि कायजोगा" पओओ । देहि सव्वेहि णाणावरणीयवेयणा समुप्पजदे । कोध-माण- माया-लोभ-राग-दोस-मोहपेम्म णिदाण- अभक्खाण- कलह-पेसुण्ण-रदि- अरदि-उवहिणियदि माण- माय - मोसेहि कसापच्चओ परुविदो । मिच्छणाण-मिच्छदंसणेहि मिच्छत्तपच्चओ णिद्दिट्ठो । पत्रऐण जोगवच्चओ परुविदो । पमादपच्च ओ एत्थ किण्ण वृत्तो ! ण, एदेहिंतो बज्भपादावलंभादो । कधमेयं कज्जमणेगेहिंतो उप्पज्जदे ? ण, एगादो कुंभारादो उप्पण्णघस्स अण्णादो वि उत्पत्तिदंसणादो । पुरिसं पडि पुध पुध उप्पज्जमाणा कुंभोदंचण
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[ ४, २, ८, १०.
समाधान - 'यह कोई दोष नहीं है, क्योंकि, अ, आ, इ, ई, उ और ऊ, ये छह समान स्वर और ए व ओ, ये दो सन्ध्यक्षर, इस प्रकार ये सब आठ स्वर परस्पर आदेशको प्राप्त होते हैं ॥ ३ ॥'
इस सूत्र से प्राकृत में एकारके स्थान में आकार किया गया है।
मोषका अर्थ चोरी है । यह मोष अदत्तादान में प्रविष्ट नहीं होता, क्योंकि हृत, पतित, प्रमुक्त और निहित पदार्थ के ग्रहणविषयक अदत्तादान में इसके प्रवेशका विरोध है । बौद्ध, नैया' यिक, सांख्य, मीमांसक, चर्वाक और वैशेषिक आदि दर्शनों की रुचिसे सम्बद्ध ज्ञान मिथ्याज्ञान कहलाता है । मिथ्यात्व के समान जो हैं वे भी मिथ्यात्व है, उन्हींको मिथ्यादर्शन कहा जाता है । मन, वचन एवं कायरूप योगों को प्रयोग शब्द से ग्रहण किया गया है । इन सबसे ज्ञानावरणीयकी वेदना उत्पन्न होती है । क्रोध, मान, माया, लोभ, राग, द्वेष, मोह, प्रेम, निदान, अभ्याख्यान, कलह, पैशून्य, रति, अरति उपधि, निकृति, मान, माया और मोष, इनसे कषाय प्रत्ययकी प्ररूपणा की गई है । मिथ्याज्ञान और मिथ्यादर्शनसे मिथ्यात्व प्रत्ययकी प्ररूपणा की गई है। प्रयोगसे योग प्रययकी प्ररूपणा की गई है ।
शंका- यहां प्रमाद प्रत्यय क्यों नहीं बतलाया गया है ?
समाधान- नहीं, क्योंकि, इन प्रत्ययोंसे बाह्य प्रमाद प्रत्यय पाया नहीं जाता ।
शंका- -एक कार्य अनेक कारणोंसे कैसे उत्पन्न होता है ?
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समाधान- नहीं, क्योंकि, एक कुम्भकारसे उत्पन्न किये जानेवाले घटकी उत्पत्ति अन्यसे भी देखी जाती है । यदि कहा जाय कि पुरुषभेद से पृथक् पृथक् उत्पन्न होनेवाले कुम्भ, उदवन
१ क० पा० १, पृ० ३२६, तत्र 'अण्णोण्णस्स परीप्परं' इत्येतस्य स्थाने 'अण्णोण्णरसविरोहा' इति पाठः । २ अ प्रत्योः 'पम्मूह', ताप्रतौ 'पण्णव' इति पाठः । ३ - श्रापत्योः 'पदेस' इति पाठः । ४ -'श्रप्रत्योः 'मिच्छत्ता मिच्छ-', 'मिच्छत्ताणि मिच्छा-' इति पाठः । ५ ताप्रतौ 'कायजोवा (गा )' इति पाठः ।
ताप्रतौ
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