Book Title: Shatkhandagama Pustak 12
Author(s): Pushpadant, Bhutbali, Hiralal Jain, Fulchandra Jain Shastri, Devkinandan, A N Upadhye
Publisher: Jain Sahityoddharak Fund Karyalay Amravati
View full book text
________________
[२९५
४, २, ३,२] वेयणमहाहियारे वेयणसामित्तविहाणे ण समवेदजीवाजीवेहितो वि तदुप्पत्ती, अजोगिस्स वि कम्मबंधप्पसंगादो । तम्हा मिच्छत्तासंजम-कसाय-जोगजणणक्खमपोग्गलदव्वाणि जीवो च कम्मबंधस्स कारणमिदि द्विदं। सो च जीव-पोग्गलाणं बंधो पवाहसरूवेण आदिविरहियो, अण्णहा अमुत्त-मुत्ताणं जीव. पोग्गलाणं बंधाणुववत्तीदो। बंधवत्तिं पडुच्च सादि-संतो, अण्णहा एगम्हि जीवे उप्पण्णदेवादिपज्जायाणमविणासप्पसंगादो । तम्हा दोहिंतो' तीहिं चदुहि वा उप्पन्जिय जीवम्मि एगीभावेण द्विदवेयणा तत्थ एगस्स चेव होदि, अण्णस्स ण होदि त्ति ण वोत्तसक्किजदे । एवं जादसंदेहस्स अंतेवासिस्स मदिवाउलविणासणटुं वेयणसामित्तविहाणमाढ. वेदव्य'मिदि।
णेगम-ववहाराणं णाणावरणीयवेयणा सिया जीवस्स वा ॥२॥
एत्थ वा सद्दा सव्वे समुच्चय? दट्टव्वा । सिया सद्दा दोण्णि-एक्को किरियाए वाययो, अवरो णइवादियो, तत्थ कस्सेदं गहणं ? णइवादियो घेत्तव्यो, तस्स अणेयंते वुत्तिदंसणादो। सव्वहाणियमपरिहारेण सो सव्वत्थपरूवओ,पमाणाणुसारित्तादो । उत्तं च
इस आपत्तिको टालनेके लिये यदि समवेत (समवाय प्राप्त ) जीव व अजीवसे उनकी उत्पत्ति स्वीकार करते हैं तो यह भी उचित नहीं है, क्योंकि, वैसा माननेपर [ कर्मसमवेत ] अयोगकेवलीके भी कर्मबन्धका प्रसंग अवश्यम्भावी है। इस कारण मिथ्यात्व, असंयम, कषाय और योगको उत्पन्न करने में समर्थ पुद्गल द्रव्य और जीव कर्मबन्धके कारण हैं, यह सिद्ध होता है। वह जीव और पुद्गलका बन्ध भी प्रवाह स्वरूपसे आदि विरहित अर्थात् अनादि है, क्योंकि, इसके विना क्रमशः अमर्त और मत जीव व पुद्गलका बन्ध बन नहीं सकता। बन्धविशेषकी अपेक्षा वह बन्ध सादि व सान्त है, क्योंकि इसके बिना एक जीवमें उत्पन्न देवादिक पर्यायोंके अविनश्वर होनेका प्रसंग भाता है । इस कारण दो, तीन अथवा चारसे उत्पन्न होकर जीवमें एक स्वरूपसे स्थित वेदना उनमेंसे एकके ही होती है, अन्यके नहीं होती, ऐसा नहीं कहा जा सकता है। इस प्रकार सन्देहको प्राप्त शिष्य की बुद्धिव्याकुलताको नष्ट करनेके लिये वेदनस्वामित्व विधानको प्रारम्भ करना योग्य है।
नैगम और व्यवहार नयकी अपेक्षा ज्ञानानरणीयकी वेदना कथंचित् जीवके होती है ॥ २॥
यहाँ सूत्रोंमें प्रयुक्त सब वा शब्दोंको समुच्चय अर्थमें समझना चाहिये । स्यात् शब्द दो हैंएक क्रियावाचक और दूसरा अनेकान्त वाचक । उनमें यहाँ किसका ग्रहण है ? यहाँ अनेकान्त वाचक स्यात् शब्दको ग्रहण करना चाहिये, क्योंकि, उसकी अनेकान्त में वृत्ति देखी जाती है । उक्त स्यात् शब्द 'सर्वथा' नियमको छोड़कर सर्वत्र अर्थकी प्ररूपणा करनेवाला है, क्योंकि, वह प्रमाणका अनुसरण करता है। कहा भी है
१ ताप्रतौ ‘दोहिं [तो]' इति पाठः । २ अप्रतौ 'वाउस', आप्रतौ 'वानोश्र' इति पाठः।। अ-श्राप्रत्योः मदवेदव्य' इति पाठः ।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org