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२९६] छक्खंडागमे वेयणाखंड
[४, २, ६, ३. (सर्वथा नियमत्यागी यथादृष्टमपेक्षकः' ।
स्याच्छब्दस्तावके न्याये नान्येषामात्मविद्विषाम् ॥१॥ ततः स्याजीवस्य वेदना । तं जहा-अणंताणंत विस्सासुवचयसहिदकम्मपोग्गल. खंधो सिया जीवो, जीवादो पुधभावेण तदणुवलंभादो। ण च अभेदे संते एगजोगक्खेमदा णत्थि त्ति वोत्त जुत्तं, अण्णत्थ तहाणुवलंभादो। एवं विहविवक्खाए सिया जीवस्स वेयणा त्ति सिद्धं।
सिया णोजीवस्स वा ॥३॥
णोजीवो णाम अणंताणंतविस्सासुवचएहि उवचिदकम्मपोग्गलक्खंधो पाणधार. णाभावादो णाण-दसणाभावादो वा। तत्थतणजीवो वि सिया: णोजीवो; तत्तो पुधभूदस्स तस्स अणुवलंभादो। तदो' सिया णोजीवस्स वेयणा । कथमभिण्णे छट्ठीणिदेसो ? ण, खहरस्स खंभो त्ति अभेदे वि छट्ठीणिद्देसुवलंभादो । एदाणि दो वि सुत्ताणि संगहियणेगमस्स वि जोजेदव्वाणि, बहूणं पि जीव-णोजीवाणं जादिदुवारेण एयत्तववत्तीदो।
सिया जीवाणं वा ॥४॥
हे अरजिन ? आपके न्यायमें 'सर्वथा' नियमको छोड़कर यथादृष्ट वस्तुकी अपेक्षा रखनेवाला 'स्यात्' शब्द पाया जाता है। वह आत्मविद्वेषी अर्थात् अपने आपका अहित करनेवाले अन्यके यहाँ नहीं पाया जाता ॥१॥
इस कारण कथंचित् जीवके वेदना होती है। वह इस प्रकार-अनन्तानन्त विस्रसोपचय सहित कर्मपुद्गलस्कन्ध कथश्चित् जीव है, क्योंकि, वह जीवसे पृथक् नहीं पाया जाता। अभेद होनेपर एक योग-क्षेमता (अभीष्ट वस्तुका लाभ व संरक्षण) नहीं रहेगी, ऐसा कहना भी उचित नहीं है, क्योंकि, अन्यत्र वैसा पाया नहीं जाता। इस प्रकारकी विवक्षासे कथंचित् जीवके वेदना होती है, यह सिद्ध है।
कथंचित् वह नोजीवके होती है ॥३॥
अनन्तानन्त विनसोपचयोंसे उपचयको प्राप्त कर्म-पुद्गलस्कन्ध प्राणधारण अथवा ज्ञानदर्शनसे रहित होनेके कारण नोजीव कहलाता है । उससे सम्बन्ध रखनेवाला जीव भी कथंचित् नोजीव है, क्योंकि, वह उससे पृथग्भूत नहीं पाया जाता है। इस कारण कथंचित् नोजीवके वेदना होती है।
शंका-अभेदमें षष्ठी विभक्तिका निर्देश कैसे किया ? समाधान-नहीं, क्योंकि, 'खैरका खम्भा यहाँ अभेदमें भी षष्ठीका निर्देश पाया जाता है ।
इन दोनों सूत्रोंको संगृहीत नैगम नयके भी जोड़ना चाहिये, क्योंकि, बहुत भी जीव और नोजीवों में जातिकी अपेक्षा एकता पायी जाती है।
उक्त वेदना कथंचित् बहुत जीवोंके होती है ॥ ४ ॥
१ प्रतिषु 'मवेक्षकः इति पाठः । २ बृहत्स्व १०२ । ३ अ-श्रापत्योः 'सया' इति पाठः । ४ अ-ताप्रत्योः 'तदा' आप्रतौ 'तद' इति पाठः।
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